Book Title: Jain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Pramuditashreeji

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Page 590
________________ 553 जैन आचार्यों की दृष्टि में जहाँ संज्ञा शब्द सामान्य जैविक प्रवृत्तियों की वाचक है, वहीं संज्ञी शब्द विवेकशील प्राणियों का ही वाचक है। जैन आचार्यों ने यह माना है कि -जिसमें हेय, ज्ञेय और उपादेय का विवेक हो, वही संज्ञी कहलाता है। इस आधार पर वे यह मानते हैं कि संज्ञा सामान्यतः संसार के सभी प्राणियों में पायी जाती है, किन्तु संज्ञी वे ही होते हैं, जो हेय, ज्ञेय और उपादेय की विवेक क्षमता से युक्त होते हैं। जैनदर्शन के अनुसार, सांसारिक प्राणियों में उच्चस्तरीय पंचेन्द्रिय प्राणी और मनुष्य ही ऐसे हैं, जो संज्ञी पद के अधिकारी हैं। यद्यपि नारकों और देवों में संज्ञीपना माना गया है, किन्तु वे दोनों की भोगभूमियाँ हैं। यहाँ वे केवल अपने शुभाशुभ कर्मों का भोग करते हैं, उनमें त्याग मार्ग या निवृत्ति मार्ग में आगे बढ़ने की क्षमता नहीं होती। चाहे उनमें हेंय, ज्ञेय या उपादेय का विवेक हो (क्योंकि नरक में भी सम्यग्दृष्टि जीव होते हैं), किन्तु न तो उनमें हेय का परित्याग करने की और न उपादेय को ग्रहण करने की क्षमता होती है और वह अपने जैविक-वृत्तियों से भिन्न जीवन जी सकते हैं यद्यपि कुछ पशु, देव एवं नारक, संज्ञा और संज्ञी –दोनों हैं, फिर भी हेय का परित्याग और उपादेय का ग्रहण करने की शक्ति न होने के कारण वे उसी जीवन में मोक्ष के अधिकारी नहीं है। इस प्रकार, सामान्य रूप से हम कह सकते हैं कि सामान्यतया संज्ञाएँ प्राणीय जीवन के वासनात्मक और जैविक-पक्ष को प्रस्तुत करती हैं, जबकि संज्ञा का भाव प्राणी के विवेकात्मक पक्ष को प्रस्तुत करता है। यहाँ हमें यह समझ लेना चाहिए कि ज्ञानात्मक विवेक क्षमता और आचरणात्मक विवेक में अंतर है। ज्ञानात्मक विवेक देव, नारक और पंचेन्द्रिय तिर्यंच में भी होता है, किन्तु आचरणात्मक विवेक केवल मनुष्य में ही पाया जाता है, इसलिए मनुष्य में ज्ञानात्मक-विवेक और आचरणात्मक-विवेक दोनों की ही संभावना है। यद्यपि जैनदर्शन में तिर्यंच पंचेन्द्रिय 16 द्रव्यानुयोग, भाग-1, मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' अध्याय-9 पृ. 270 ।” प्रज्ञापनासूत्र, सूत्र 1968-1973 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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