Book Title: Jain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Pramuditashreeji

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Page 582
________________ कम भय, मैथुन और परिग्रह - रूप वृत्तियाँ पाई जाती हैं। इतना ही नहीं, अपितु उनमें किसी-न-किसी रूप में क्रोध, मान, माया और लोभ के तत्त्व भी पाए जाते हैं, फिर भी जैनदर्शन में यह मान्यता है कि मनुष्य इनसे ऊपर उठ सकता है, अतः जहाँ आधुनिक मनोविज्ञान में मूलप्रवृत्तियाँ एक बाध्यता - रूप है, वहाँ जैनदर्शन में -से-कम मनुष्यों के लिए ये बाध्यता - रूप नहीं हैं, क्योंकि मनुष्य में इन पर विजय पाने की क्षमता है। जैनदर्शन की यह भी मान्यता है कि वीतराग परमात्मा में आहार, भय, मैथुन और परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, दुःख, मोह, शोक और विचिकित्सा - इन बारह संज्ञाओं का अभाव होता है, वे लौकिक - प्रवृत्तियों से भी रहित होते हैं। इस प्रकार जैनदर्शन के अनुसार यद्यपि संज्ञाएँ व्यवहार की प्रेरक हैं, किन्तु फिर भी वे मानवीय व्यवहार के लिए बाध्यता रूप नहीं हैं। व्यक्ति अपने दृढ़ संकल्प के बल पर इनसे ऊपर उठ सकता है। साथ ही, जैनदर्शन में यह 'संज्ञा' शब्द विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है। व्याकरण - शास्त्र की अपेक्षा से संज्ञा शब्द नाम या पहचान का वाचक है, लेकिन प्रस्तुत शोधप्रबंध में हमने संज्ञा शब्द का जो अर्थ गृहीत किया है, वह इससे भिन्न है। यद्यपि सर्वार्थसिद्धि नामक तत्त्वार्थसूत्र की टीका में संज्ञा का अर्थ नाम या पहचान बताया गया है, फिर भी प्रस्तुत प्रसंग में संज्ञा का यह अर्थ अभिप्रेत नहीं है। सामान्यतया, व्यक्ति के जीवन के अभिप्रेरक के रूप में संज्ञा को स्वीकार किया गया है। जैनदर्शन में संज्ञा एक पारिभाषिक शब्द है । जैन आचार्यों ने संज्ञा की परिभाषा इस प्रकार की है - "वेदनीय तथा मोहनीय कर्मों के उदय से एवं ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से आहारादि के प्रति जो वासनात्मक–अभिरुचियाँ होती हैं तथा उचित या अनुचित की विवेकात्मक प्रवृत्ति होती है, वही संज्ञा है । 2 545 इस प्रकार, जैनदर्शन में संज्ञा शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । वेदनीय व मोहनीय कर्म के उदय से आहार, भय, मैथुन आदि की जो अभिलाषा, अभिरुचि 'संज्ञा नामेत्युच्यते । तत्त्वार्थसूत्र - 2 /24/181/10 भगवतीवृत्ति 6 / 161, उद्धृत - भगवई, खंड-2, आचार्य महाप्रज्ञ, जैनविश्वभारती लाडनूं, पृ. 382 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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