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अस्वस्थ्यता, तनाव आदि असातावेदनीयकर्म के फल प्राप्त होते हैं, अतः जो मनुष्य सुखों के झूले पर झूलना चाहता है, उसे खेद खिन्न, पीड़ित, दुःखी और अशान्त जीवों के दुःखों को अपना दुःख समझकर सुखों के बीज बोना चाहिए, दुःखों के बीज हर्गिज नहीं बोना चाहिए, तभी मनुष्य सुखानुभव कर सकता है और दुःख से बच सकता है तथा अपने और दूसरों के जीवन को सन्तुष्ट, सुखी और शान्त बना सकता है। 48
48 ज्ञान का अमृत से भावांशग्रहण, पृ. 277 (उद्धत् - कर्मविज्ञान, आचार्य देवेन्द्रमुनि, पृ. 292 )
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