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विषय अपने-आप में अच्छे या बुरे नहीं हैं, साधक की दृष्टि में मोहजन्य रागद्वेष के कारण विषय अनुकूल या प्रतिकूल बन जाते हैं। मोह मीठा जहर है, मधु-मिश्रित विष है। वह मन को मधुर लगता है, किन्तु परिणाम इसका भी विषतुल्य है । भगवद्गीता में इसी तथ्य का समर्थन किया गया है।
"प्रत्येक इन्द्रिय के अर्थ (विषय) के साथ रागद्वेष विशेष रूप से अवस्थित रहे हुए हैं। साधक उन रागद्वेषरूपी मोह के वशीभूत न हो, क्योंकि यह मोह ही अंतरंग शत्रु है 58
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आचारांगसूत्र में भी कहा है जो अनायास प्राप्त मनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श को पाकर मोह नहीं करता तथा अमनोज्ञ पापजन्य अशुभ शब्दादि को पाकर प्रद्वेष भी नहीं करता, वही साधक पंडित (अर्थात् जितमोह) कहलाता है। उत्तराध्ययन में भी कहा है इन पांचों इन्द्रियों के विषयों के ग्रहण के प्रति मन में जरा भी मोह न करें, मन को चंचल न होने दें, वचन से अच्छी-बुरी प्रतिक्रिया प्रकट न करें तथा काया को भी उसके प्रभाव से शून्य बना दें। मन में शुभ या अशुभ रूप, शब्द, रस, गन्ध और स्पर्श का स्मरण - मनन न करें और न आसक्ति, मोह, लालसा, वासना, लिप्सा आदि करें 100
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इस प्रकार हम मोह को जीत सकते हैं, परंतु कुन्दकुन्दाचार्य समयसार में कहते हैं कि मात्र इन्द्रियों के विषय को समाप्त करने से मोह पर विजय प्राप्त नहीं हो सकती, इसके लिए वस्तु के प्रति जो आसक्ति है, उसे हटाने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार के व्यक्ति को ही 'जितमोह' कहा गया है । जितमोह व्यक्ति मोह को जान तो रहा है, देख भी रहा है कि यह बुरा है, जैसे- कोई व्यक्ति बाह्य - रूप से मिठाई का त्याग करता है, वह जान रहा है कि यह त्याग मिठाई के प्रति उसकी
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* इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे राग-द्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेतौ हास्य परिपन्थिनौ । । - भगवद्गीता 3 / 34
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59 आचारांगसूत्र, 2/3/15/131-135
60 जे सद्द-रूव-रस- गंधमायए, फासे य संपप्प मणुण्णपावए । गेही पओसं न करेज्ज पंडिए, स होति दंते विरए अकिंचणं । -
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उत्तराध्ययन सूत्र, वृत्ति 32
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