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तत्त्व ही है, क्योंकि उसमें भी अपनी कमियों को छिपाने की प्रवृत्ति ही काम करती
है।
जैनदर्शन में जो लोभसंज्ञा की चर्चा है, वह वस्तुतः प्रारंभिक चार संज्ञाओं में परिग्रहसंज्ञा से बहुत अधिक दूर नहीं है। परिग्रह की भावना, संग्रहवृत्ति और लोभ–संज्ञा प्रायः पर्यायवाची ही माने जा सकते हैं। लोभ एक मानसिक स्थिति है और संग्रहवृत्ति इसकी ही बाह्य-अभिव्यक्ति है।
जैनदर्शन में संज्ञाओं के षोडशविध वर्गीकरण में विचिकित्सा नामक संज्ञा का उल्लेख है। वस्तुतः, यह घृणा की भावना या विकर्षण का ही एक रूप है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैनदर्शन की सोलह संज्ञाओं में से नौ संज्ञाएं कहीं-न-कहीं मैकड्यूगल की चौदह मूलप्रवृत्तियों और उनके संवेगों से ही जुड़ी हुई
लोक, ओघ, सुख, दुःख, धर्म, मोह और शोक -ये सात संज्ञाएं ऐसी हैं, जिनका मूलप्रवृत्ति के रूप में कहीं कोई उल्लेख नहीं हुआ है, फिर भी सुख के प्रति आकर्षण और दुःख के प्रति विकर्षण का भाव तो प्रत्येक प्राणी में पाया जाता है। आचारांगसूत्र में कहा गया है –“सभी दुःख अप्रिय हैं, सुख प्रिय"। ये आकर्षण और विकर्षण के भाव ही जैनदर्शन में राग और द्वेष के तत्त्वों के रूप में वर्णित हैं।' संवेगों में इन्हें स्नेह और घृणा के भाव कहा गया है। शिशुरक्षा आदि की प्रवृत्ति भी कहीं-न-कहीं रागजन्य है।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैनदर्शन में जो संज्ञाओं का विवेचन है, वह आधुनिक मनोविज्ञान की मूलप्रवृत्तियों और स्थाई भावों की अवधारणा के साथ बहुत कुछ समरूपता रखता है।
आधुनिक मनोविज्ञान मूलप्रवृत्तियों को जन्मना मानता है। जैनदर्शन के अनुसार भी ये पूर्वकर्मजन्य होने के कारण इन्हें जन्मना माना जा सकता है, फिर भी
2 आचारांगसूत्र- 1/4/2 3 उत्तराध्ययनसूत्र- 32/7
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