Book Title: Jain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Pramuditashreeji

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Page 579
________________ जैनदर्शन में धर्म और ओघ ये दो संज्ञाएं आधुनिक मनोविज्ञान से भिन्न ही हैं । यद्यपि धर्म का तात्पर्य वस्तुस्वभाव मानने पर उसे किसी रूप से आधुनिक मनोविज्ञान के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया जा सकता है, फिर भी दोनों में बहुत कुछ अन्तर है, क्योंकि आधुनिक- मनोविज्ञान अपने को प्राणीय - व्यवहार तक सीमित रखता है, जबकि जैनदर्शन प्राणीय - व्यवहार के पीछे दैहिक और चैतसिक - दोनों बातों को स्वीकार करता है, फिर भी लोकोत्तर, जीवन या मोक्ष की बात करता है । जैनदर्शन में इन संज्ञाओं का आधार न केवल जैववृत्ति है, अपितु उसके पीछे कर्मजन्य भौतिकपक्ष एवं आध्यात्मिक - पक्ष भी रहा हुआ है I आधुनिक-मनोविज्ञान वस्तुतः, प्राणी-व्यवहार का विज्ञान है, अतः वह अपने को प्राणी - व्यवहार की व्याख्या तक ही सीमित रखता है, परन्तु जैनदर्शन धर्मआधारित है, इसलिए वह प्राणी-व्यवहार के पीछे एक आध्यात्मिक - दृष्टि को भी मानकर चलता है। आधुनिक मनोविज्ञान केवल, व्यवहार क्या है और कैसा है ? तक ही अपने-आपको सीमित करता है; जबकि जैनदर्शन, प्राणीव्यवहार ऐसा क्यों है और उसे कैसा होना चाहिए ? इन पहलुओं को लेकर सूक्ष्मता से विचार करता है । व्यवहार के कारण की खोज और जीवन - लक्ष्य का निर्धारण - यह आधुनिकमनोविज्ञान से जैनदर्शन की भिन्नता को सूचित करता है । 543 जैनदर्शन केवल तथ्यात्मक ही नहीं, वह आदर्शपूर्वक भी है और यही कारण है कि उसने संज्ञाओं के इस वर्गीकरण में भी ओघसंज्ञा और धर्मसंज्ञा को एक आदर्श प्रेरक के रूप में उपस्थित किया है। इस प्रकार, मैकड्यूगल के मूलप्रवृत्ति के सिद्धांत और जैनदर्शन में आंशिक समरूपता होते हुए भी आंशिक - वैभिन्य भी है । Jain Education International -000 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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