Book Title: Jain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Pramuditashreeji

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Page 559
________________ 525 जुगुप्सा आवश्यक भी और अनावश्यक भी - जुगुप्सा आवश्यक भी है और अनावश्यक भी, क्योंकि जहाँ किसी के प्रति ममत्व का पोषण हो रहा है, रागादि भावों की वृद्धि हो रही है, वहाँ जुगुप्सा करना आवश्यक भी है। व्यक्ति का सबसे अधिक ममत्व शरीर से होता है, वह शरीर के प्रति आसक्ति अधिक रखता है। शरीर को सजाने-संवारने, अच्छा दिखाई देने के लिए वह अपना सारा धन और समय लगाता है और कर्मबंधन करता चला जाता है। उस समय उसे यह विचार करना चाहिए कि उसका शरीर हाड़-मांस का बना पिंजरा है, सदा नष्ट होने वाला है, उस नश्वर देह के पोषण में वह अपना समय क्यों बर्बाद कर रहा है। धर्म के साधनरूप जो शरीरादि हैं, वे स्वभाव से ही अपवित्र हैं, अतः इस प्रकार उसके प्रति जुगुप्सा करना भी निर्जरा का कारण बनता है। जुगुप्सा अनावश्यक भी - वस्तुतः, जुगुप्सा शब्द 'गुप रक्षणे' धातु से बना है, जिसका अर्थ है –रक्षण की इच्छा और दूसरा अर्थ मानसिक-ग्लानि भी है। मान और अहम् के वशीभूत होकर, दूसरों को नीचा दिखाने एवं स्वयं को उच्च और महान् बताने के लिए जो घृणा, ग्लानि, निंदा, आलोचना की जाती है, वह बंधन का कारण बनती है। जुगुप्सा का भाव सम्यग्दर्शन में बाधक बनता है। सम्यग्दर्शन के पांच अतिचारों में विचिकित्सा (जुगुप्सा) भी एक है। अतिचार से अभिप्राय ऐसे असदाचरण से है, जिनसे सम्यग्दर्शन की विराधना होती है। इन्हें दूषण भी कहा जाता है, जो सत्य को अपने शुद्ध स्वरूप में विज्ञात करने में बाधक होते हैं। इनसे व्रत-भंग तो नहीं होता, परन्तु उसका सम्यग्दर्शन अवश्य प्रभावित होता है। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि प्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव –इन पाँच दोषों को उपासकदशांग102, भगवती आराधना'03, तत्त्वार्थसूत्र104 आदि में सम्यग्दर्शन 102 उपासकदशांगसूत्र, प्रथम अध्ययन, पृ. 46-47 103 भगवतीआराधना -16/62/14 104 शंकाकाड्.क्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः । - तत्त्वार्थसूत्र -7/18 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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