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चौदह संज्ञाएं जीवन संरक्षणात्मक हैं। जहाँ ओघसंज्ञा वस्तुतः सामान्य आचार नियमों के पालन के प्रति प्रेरित करती हैं, वहीं धर्मसंज्ञा व्यक्ति को आध्यात्म-पक्ष की ओर प्रेरित करती हैं, अतः ये दोनों मूलप्रवृत्तियों से भिन्न हैं।
मूलप्रवृत्त्यात्मक क्रियाएँ श्रृंखलाबद्ध और जटिल होती हैं। मूलप्रवृत्ति से एक ही क्रिया प्रेरित नहीं होती, बल्कि कई क्रियाएँ प्रेरित होती हैं, इसीलिए इन्हें श्रृखंलाबद्ध और जटिल व्यवहार कहा जाता है, जैसे -अण्डा सेंकने, घोंसला बनाने आदि की क्रियाएं। जैनदर्शन के अनुसार, जब तक संज्ञाएँ बनी रहती हैं, कर्मबंधन का क्रम चलता रहता है।
मैकड्यूगल ने सहजक्रिया (Reflex Action} और मूलप्रवृत्यात्मक क्रियाओं को जन्मजात माना है, क्योंकि कोई भी प्राणी इन्हें अपने जीवन के अनुभवों से नहीं सीखता है। इनकी योग्यता जीव में जन्म से ही मौजूद रहती हैं और ये उस ध्येय को पूरा करने में सहायक होती हैं; जीव को उसका विशेष ज्ञान अर्जित हो या न हो। किन्तु कुछ समानताओं के होते हुए भी जैनदर्शन और आधुनिक मनोविज्ञान अर्थात् दोनों में जो भी भिन्नताएँ हैं, वे दोनों को एक-दूसरे से पूर्णतः भिन्न करती हैं। आधुनिक मनोविज्ञान में भी सहज क्रियाओं और मूलप्रवृत्तियों में अन्तर माना गया है, जो मूलप्रवृत्तियों को जैनदर्शन के थोड़ा निकट ला देता है।
वस्तुतः, सहज-क्रिया सरल {Simple} और मूलप्रवृत्त्यात्मक-क्रिया जटिल {Complex} होती हैं। कोई चीज नाक में पड़ने से तत्काल छींक आती है और वह समाप्त हो जाती है, लेकिन घोंसला बनाने की मूलप्रवृत्त्यात्मक-क्रिया में कई क्रियाएँ सम्मिलित रहती हैं, इसीलिए सहजक्रिया को सरल और मूलप्रवृत्त्यात्मक-क्रिया को जटिल कहा जाता है। जैनदर्शन में भी संज्ञा को कर्मजन्य होने से सरल, किन्तु उसमें विवेक का योगदान होने से वह जटिल भी है।
उपर्युक्त विशेषता से यह भी स्पष्ट है कि सहजक्रिया क्षणिक होती है, किन्तु मूलप्रवृत्त्यात्मक-क्रिया सापेक्षतया दीर्घकालिक होती है। ऊपर के उदाहरण में छींक
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