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चैतसिक-धर्म उसमें रहते हैं। चित्त आधार है और चैतसिक आधेय हैं। यह चित्त जैनदर्शन में भाव-मन के रूप में परिभाषित है। चैतसिक हमारे मन की विभिन्न अवस्थाएँ या पर्यायें हैं।
बौद्धदर्शन में कुल चैतसिकों की संख्या बावन मानी गई हैं। इन बावन चैतसिकों को निम्न तीन भागों में विभाजित किया गया है - 1. साधारण चैतसिक - जो प्रत्येक चित्त में सदैव रहते हैं। ये सात हैं - 1. स्पर्श, 2. वेदना, 3. संज्ञा, 4. चेतना, 5. आंशिक एकाग्रता 6. जीवितेन्द्रिय, 7. मनोविकार।
2. प्रकीर्ण-सामान्य चैतसिक – जो प्रत्येक चित्त में यथावसर उत्पन्न होते रहते हैं। ये छह हैं -1. वितर्क, 2. विचार, 3. अधिमोक्ष (आलम्बन में स्थिति) 4. वीर्य (साहस), 5. प्रीति (प्रसन्नता) और 6. छन्द (इच्छा)।
3. अकुशल चैतसिक - ये चौदह हैं -1. मोह, 2. निर्लज्जता, 3. अभीरूता (पाप करने में भयभीत नहीं होना), 4. चंचलता, 5. लोभ, 6. मिथ्यादृष्टि, 7. मान, 8. द्वेष, 9. ईर्ष्या, 10. मात्सर्य (कष्ट), 11. कौकृत्य (पश्चाताप या शोक), 12. सत्यान (चित्त का तनाव), 13. मृद्ध (चैतसिकों का तनाव) और 14. विचिकित्सा (संशयालुचन)।
4. कुशल चैतसिक – ये पच्चीस हैं - 1. श्रद्धा, 2. स्मृति, 3. ही, 4. अपत्रया (पापों से भय करना), 5. अलोभ, 6. अद्वेष, 7. तत्रमध्यस्था (विषय में अपेक्षा करना), 8.
फस्सो वेदना सा चेतना एकग्गता जीवितिन्द्रियं मनसिकारो चेति सन्ति मे चेतसिका सव्वचित्तसाधारणा नाम । अभिधम्मत्थसंगहो चेतसिक कण्डो।
__ -बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, भाग-1, भरतसिंह उपाध्याय, पृ. 466 वितक्को विचारो अषिमोक्खों वीरियं पीति छन्दो चेति छयिमे चेतसिका पकणिका नाम।- वही मोहो अहिरीकं अनोत्तप्पं उद्धच्चं लोभो दिट्टि मानो दोसो इस्सा मच्छरियं कुक्कुच्चं थिनं मिद्धं विचिकिच्छा चेति चुद्दसि मे चेतसिका अकुसला नाम। -अभिधम्मत्थ संगहो। - वही
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