Book Title: Jain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Pramuditashreeji

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Page 567
________________ 532 अध्याय-14 ... “जैनधर्म की संज्ञा की अवधारणा की बौद्धधर्म की चैतसिकों की अवधारणा से तुलना अपमा बौद्ध-दर्शन में चार प्रकार के तत्त्व (पदार्थ) माने गए हैं, यथा - 1. चित्त, 2. चैतसिक, 3. रूप और 4. निर्वाण।' प्रस्तुत प्रसंग में, यहाँ हम जैनदर्शन की संज्ञा की अवधारणा से तुलना करने के लिए केवल चित्त और चैतसिकों का ही वर्णन करेंगे। मनुष्य-जीवन में जो भी चैतासिक-प्रवृत्तियाँ होती हैं, वे चाहे शुभ हों या अशुभ, उन्हें बौद्धदर्शन में निम्न छ: भागों में बांटा गया है - लोभ, द्वेष, मोह, अलोभ, अद्वेष और अमोह (प्रज्ञा)। इन छहों में प्रथम तीन अशुभ हैं और अन्तिम तीन शुभ हैं। बौद्ध दर्शन की भाषा में प्रथम तीन अकुशल और अन्तिम तीन कुशल हैं। जहाँ तक जैनदर्शन का प्रश्न है, उनमें भी राग, द्वेष और मोह को स्थान दिया है, किन्तु जब हम इनकी तुलना संज्ञा से करते हैं, तो संज्ञाओं में दशविध वर्गीकरण में लोभ और षोडशविध वर्गीकरण में मोह का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। यद्यपि द्वेषसंज्ञा का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं है, किन्तु मान-कषाय और माया-कषाय वस्तुतः द्वेष के ही रूप हैं। बौद्धदर्शन में अलोप, अद्वेष और अमोह को कुशल धर्म कहा गया है, क्योंकि ये संसार के कारण नहीं होते हैं। जिस तरह से जैनदर्शन में राग, द्वेष एवं कषाय से रहित ईर्यापथिक-कर्म संसार-बंध के कारण नहीं हैं, उसी प्रकार बौद्धदर्शन में अलोप, अद्वेष और अमोह (प्रज्ञा) से जनित प्रवृत्तियाँ भी बंध का कारण नहीं होती हैं। जहाँ तक जैनदर्शन की संज्ञाओं की अवधारणाओं से तुलना करने का प्रश्न है, उसमें ओघ और धर्म को छोड़कर शेष सभी संज्ञाएं संसारी जीवों में कर्मबंध कारण ही होती हैं। चित्त और चैतसिक-धर्मों में यह अन्तर है कि चित्त अधिष्ठायक है और 'तत्थ वुत्थापिधम्मत्था चतुधा परमत्थतो। चितं चेतसिकं रूपं निब्बानमिति सब्बथा। -अभिधम्मत्थसंगहो, उद्धृत- बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, भाग-1, भरतसिंह उपाध्याय, पृ. 464 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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