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(स) विचिकित्सा -संज्ञा (जुगुप्सा ) {Instinct of disgust}
विचिकित्सा (जुगुप्सा) संज्ञा का स्वरूप -
जैनदर्शन में संज्ञाओं के जो चतुर्विध, दशविध और षोडशविध वर्गीकरण प्राप्त होते हैं, उनमें षोडशविध वर्गीकरण में विचिकित्सा को भी संज्ञा कहा गया है। संसारी जीवों की जो स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, उसे संज्ञा कहा गया है। तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में विचिकित्सा या जुगुप्सा को परिभाषित करते हुए कहा गया है -"इसके उदय से अपने दोषों का संवरण करने की और परदोषों को उजागर करने की जो वृत्ति होती है, उसे जुगुप्सा कहते हैं। सामान्यतया दूसरों में जो कमी या बुराइयों को देखने की प्रवृत्ति है, वही जुगुप्सा है। यह अपने दोषों को छिपाने और दूसरों के दोषों को उजागर करने की सामान्य प्रवृत्ति के अन्तर्गत आती है। कभी-कभी जुगुप्सा का अर्थ घृणा का भाव भी है। दूसरों के शरीर, वस्त्र अथवा ज्ञानादि में कमी को देखकर उसके प्रति घृणा का जो भाव उत्पन्न होता है, वह जुगुप्सा है।
सामान्यतः, जुगुप्सा-संज्ञा” दूसरों के प्रति द्वेषरूप होती है।
वस्तुतः, जुगुप्सा नो–कषाय का ही एक रूप है। व्यक्ति अपने अहंकार के पारितोषण के लिए दूसरों की कमी को देखता है। दूसरों के प्रति घृणा का भाव मान-कषाय का निषेधात्मक पक्ष है। जैनदर्शन में सम्यक्त्व के जो लक्षण बताए गए हैं उनमें विचिकित्सा को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। नैतिक अथवा धार्मिक
941) आचारांगसत्र, 1/1/2
2) अभिधानराजेन्द्रकोश खण्ड-7, पृ. 301 95 यदुदयादात्मदोषसंवरणं परदोषाविएकरणं सा जुगुप्सा। - सर्वार्थसिद्धि 8/9, 386/1 * कुत्साप्रकारो जुगुप्सा । ........आत्मीयदोषसंवरणं जुगुप्सा। - राजवार्तिक, 8/9, 4/574/18 7 जुगुप्सन जुगुप्सा जेसिं कम्माणमुदएण दुगुंछा उप्पज्जदि तेसिं दुगुंछ। इति सण्णा- धवला 6/19-1
1) स्थानांगसूत्र-9/69 2) तत्त्वार्थसूत्र, 8/10 3 ) प्रज्ञापनासूत्र 23/2 4) प्रथमकर्मग्रंथ गाथा 215) प्रवचनसारोद्धार
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