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नकारात्मक भाव मन में न आएं
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शोक से बचने के लिए निषेधात्मक भावों से बचने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि व्यक्ति को नकारात्मक भाव अधिक आते हैं। आदमी नकारात्मक भाव में जीता है, इसलिए खिन्नता, अवसाद, उदासी, आत्महत्या का भाव आना, घर से पलायन करना आदि सोच मन-मस्तिष्क में चलती रहती है। नकारात्मक भाव मन में न आएं, इसका अभ्यास इस संकल्प के द्वारा किया जा सकता है, कि आज मैं नकारात्मक - विचारों को मन में नहीं आने दूंगा, सकारात्मक - 1 क - विचारों में ही रहूंगा । इस प्रकार का चिन्तन करते हुए नकारात्मक
भावों से मुक्त होते जाएंगे।
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शोक पर विजय के लिए उपर्युक्त विवेचना के साथ-साथ यह भी विचारणीय है कि प्राणी प्रवृत्ति से बंधता है और निवृत्ति से मुक्त होता है । प्रवृत्ति बांधती है और निवृत्ति मुक्त कराती है। प्रवृति तभी बंधती है, जब उसके पीछे अविद्या के संस्कार रह जाते हैं। वीतराग भी प्रवृत्ति करता है, किन्तु वीतराग बंधता नहीं है ।
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शोक को भी मूल प्रवृत्ति के रूप में स्वीकार किया गया है । जब भी शोक होगा, आर्त्तध्यान होगा और बंध का कारण बनेगा, इसलिए शोक से मुक्ति के लिए ज्ञातादृष्टा-भाव में रहना आवश्यक है । मात्र आत्मरमणता और स्वभाव में चित्त की वृत्तियाँ रहें, अन्य प्रवृत्तियों में नहीं रहें, ऐसी स्थिति में शोक स्वतः ही समाप्त हो
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जाएगा ।
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