Book Title: Jain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Pramuditashreeji

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Page 539
________________ 505 परवशता से दुःख अकेले को ही सहन करने पड़ते हैं। मोह के कार ! व्यक्ति अपेक्षा रखना प्रारंभ कर देता है और अपेक्षा की पूर्ति नहीं होती है, तो वह दुःखी होता है। इसलिए मन में जब यह दृढ़ संकल्प रहेगा कि मैं अकेला आया हूँ और अकेला ही जाऊँगा, दूसरे स्वजन-परिजन मेरा कुछ भी नहीं कर सकते, इससे निश्चित रूप से मोह पर जय की जा सकती है। प्रशमरति में उमास्वाति ने भी कहा है – “मै अकेला हूँ, अकेला पैदा होता हूँ और मरता भी अकेला ही हूँ, नरक में जाता हूँ, तो भी अकेला और स्वर्ग की सैर करता हूँ, तो भी अकेला, मैं अकेला ही मनुष्य-गति में जन्म लेता हूं और पशुयोनि में जाऊँ, तो भी मैं स्वयं ही - यह चिन्तन सतत् करते रहना चाहिए।64 5. समत्व से मोह पर विजय - यदि सभी कर्मों से मुक्ति पाना है तथा शारीरिक-मानसिक संतापों से, क्लेशों से मुक्त होना है, तो एकत्व और समत्व की आराधना करना होगी, एकत्व-भावना का चिन्तन प्रतिदिन करना होगा। उपाध्याय श्री विनयविजयजी शान्तसुधारस ग्रंथ में चौथी एकत्व-भावना समझाते हुए कहते हैं –“सोना जैसी कीमती धातु भी यदि हल्की धातु से मिल जाती है, तो अपना निर्मल रूप खो बैठती है, वैसे ही आत्मा परभाव में अपना निर्मल रूप खो बैठती है। 85 ___ "परभाव के प्रपंच में पड़ी हुई आत्मा न जाने कितने स्वांग रचती है, पर वही आत्मा अनादि कर्मों के मैल से मुक्त हो जाए, तो शुद्ध सोने की भाँति चमक उठती है। 66 64 एकस्य जन्म मरणे, गतयश्च शुभाशुभा भवावर्ते तस्मादाकालिका हितमेकेनैवात्मनः कार्यम।। - प्रशमरतिप्रकरण - 153 65 पश्य कांचनमितरपुद्गलमिलितमंचति का दशाम्। केवलस्य तु तस्य रूपं विदितमेव भवादृशाम् ।। – शान्तसुधारस ग्रंथ, 4/5 66 1) एवमात्मनि कर्मवशतो भवति रूपमनेकधा। कर्ममलरहिते तु भगवति भासते कान्चविधा।। - वही 4/6 2) प्रवचनसार, गाथा-7 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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