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जो आसक्ति है, उसे कम करेगा, उस व्यक्ति ने बाह्य-रूप से तो मोह को जीत लिया है, परंतु अंदर बनी रहने वाली आसक्ति को नहीं जीत पाया है। यहाँ पर भी मोह की सत्ता माननी तो होगी।
'क्षीणमोह' वह है, जो मोह का संपूर्ण रूप से क्षय कर देता है, जो व्यक्ति आंतरिक रूप से भी मोह को त्याग देता है, वही क्षीणमोह कहलाता है।62
कुन्दकुन्दाचार्य ने मोह को जीतने के लिए सर्वप्रथम बाह्य-इन्द्रियों के विषय को त्यागने की बात की, फिर बाह्य-वस्तु का त्याग तो मोह को जीतने के लिए किया, पर फिर भी कुछ अंश में मोह के प्रति आसक्ति बनी रही। मोह पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त करना है, तो क्षयमोह से ही संभव है। मोक्ष का क्षय ही व्यक्ति को मोक्ष तक पहुंचा सकता है।
2. भेदविज्ञान द्वारा मोह पर विजय -
जिस प्रकार दूध और पानी एक क्षेत्रावगाही रहते हुए भी भिन्न-भिन्न हैं, वैसे ही एकक्षेत्रावगाही रहते हुए भी शरीर आत्मा से भिन्न है, दोनों के गुण-धर्म समान नहीं हैं। जैसे दूध पानी की तरह एकनिष्ठ दिखने वाले शरीर एवं आत्मा भी एक नहीं है, तो फिर साक्षात् रूप से भिन्न-भिन्न दिखाई देने वाले धन, मकान, पुत्र, स्त्री आदि अत्यन्त भिन्न पदार्थ जीव के कैसे हो सकते हैं ? मोह पर विजय पाने के लिए निरन्तर यह भेद-विज्ञान करते रहना चाहिए। जैसे नारियल अलग है और छिलका अलग, दूध अलग और पानी अलग हैं, वैसे ही शरीर अलग है और आत्मा अलग है, या कर्म अलग और आत्मा अलग है। यह चिन्तन या विचार करो कि यह शरीर अचेतन है, तुम चेतन हो, शरीर अज्ञानी है, जड़ है, तुम ज्ञानी हो, अनादिकाल से मोह के कारण एक माने जा रहे हो। जैसे पुरुषार्थ के द्वारा दूध-पानी को अलग
6। जो मोहूं तु जिणित णाणसहावाधियं मुणइ आदं।
तं जिदमोहं साहुं परमट्ठावियाणया विति।। - समयसार, गाथा 32 62 जिद्मोहस्स दुजइया खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स।
तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहि।। - वही, गाथा 33
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