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है, उसे शोक कहते हैं। सर्वार्थसिद्धि में उल्लेख है – उपकार करनेवाले से सम्बन्ध के टूट जाने पर जो विकलता होती है, वह शोक है। धवला में कहा गया है कि शोक अरतिपूर्वक होता है, जहाँ अरति है, वहाँ शोक है।
___भगवतीसूत्र में कहा गया है कि शोक से असातावेदनीय-कर्म का बंध होता है, क्योंकि जब जीव दूसरों को दुःख देता है, रुलाता है, पीटता है, परिताप देता है, शोक उत्पन्न करता है, तो जीव असातावेदनीय-कर्म का बंध करता है। तत्त्वार्थसूत्र में भी इसी बात का समर्थन करते हुए आचार्य उमास्वाति लिखते हैं कि दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध, परिवेदन स्वयं करने से, अन्य को कराने से अथवा दोनों को एक साथ उत्पन्न करने से असातांवेदनीय-कर्म का बंध होता है। शोक का विस्तार-क्षेत्र बहुत विशाल है। जब शोक उत्पन्न होता है, तो वह स्वयं को तो शोकग्रस्त करता ही है, साथ ही उसके आस-पास के प्राणी भी उस शोक से प्रभावित होते हैं। क्रोध वस्तुतः व्यक्त होकर समाप्त हो जाता है, परंतु शोक व्यक्ति को दीमक की तरह खोखला बना देता है। शोक जब उत्पन्न होता है, तो व्यक्ति निराश हो जाता है। उसे संसार की कोई भी वस्तु इष्ट नहीं लगती है। वह अन्दर ही अन्दर अपने आप को नष्ट करने की योजना बनाता रहता है और आत्महत्या करने के लिए भी तत्पर हो जाता है।
मनोविज्ञान जिसे निराशा, विशाद {Depression}, उदासी, खिन्नता, तनाव {Tentionया चिन्ता कहता है, वस्तुतः वे सब शोक के ही रूप हैं। शोक एक ऐसी मानसिक-विकृति है, जिसमें व्यक्ति के भाव {feelings}, संवेग {emotion} एवं तत्सम्बन्धी मानसिक-दशाओं में इतना उतार-चढ़ाव होता है कि उसका अपना
71 नोकषायवेदनीयकर्मभेदे, यदुदयेन शोकरहितस्यापि जीव स्याक्रन्दनादिः शोको जायते। -स्थानांगसूत्र, 9/69 72 अनुग्राहकसंबन्धविच्छेदे वैक्लव्यविशेषः शोकः । - सर्वाथसिद्धि 6/11-338/12 77 अरदीए विणा सोगाणुप्पत्तीए। - धवला- 12/4 74 परदक्खणयाये, परसोयणयाए, परतिप्पणयाए, परपिट्टणयाए, पर परियावणयाए, बहूणं जाव सत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जाव परियावणयाए एवं खलु गोयमा! जीवाणं अस्सायावेयणिज्जाकम्मा किज्जन्ते।
- भगवती, श.7 उ.6, सू. 286 75 दुःखशोक तापाक्रन्दनवधपरिवेदनान्यात्म परोभयस्थानान्य सदेद्यस्य । - तत्त्वार्थसूत्र, 6/12
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