Book Title: Jain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Pramuditashreeji

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Page 542
________________ 508 निर्मलं स्फटिकस्येव, सहज रूपमात्मनः। अध्यस्तोपाधि सम्बन्धो, जड़स्तत्र विमुह्यति।। 6 ।। आत्मा का स्वाभाविक सिद्ध स्वरूप स्फटिक जैसा निर्मल है। उसमें उपाधि का संबंध आरोपित करके अविवेकी जीव उसमें फंसता है। अनारोपसुखं मोह-त्यागादनुभवन्नपि । आरोपप्रियलोकेषु, वक्तुमाश्चर्यवान् भवेत् ।। 7।। वीतराग सर्वज्ञ भगवन् द्वारा प्रतिपादित योगमार्ग पर निरंतर गतिशील योगी पुरुष, देवाधिदेव की अनन्यकृपा से जब मोह का क्षय-उपशम करने वाला बनता है और उस पर छाए मोहादि-आवरण के प्रभाव को नहींवत् बना देता है तब आत्मा के स्वाभाविक सुखों का अनुभव करता है और रात-दिन असत्याचरण में खोए मिथ्यात्वी जीवों को अपना अनुभव कहने में आश्चर्य करता है। यश्चिद्दर्पणविन्यस्त - समस्ताऽऽचारचारूधीः । क्व नाम स परद्रव्ये-ऽनुपयोगिनि मुह्यति? ।। 8 ।। परद्रव्य तब तक ही मन को मलिन, मोहित करने में समर्थ होता है, जब तक शीशे के दर्पण में मनुष्य अपने सौन्दर्य और व्यक्तित्व को देखने का प्रयत्न करता है। वह जैसे-जैसे आत्मस्वरूप के दर्पण में अपने व्यक्तित्व को (ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि) सुन्दरता को गौर से देखने का प्रयत्न करता है, वैसे-वैसे परद्रव्यों के प्रति रही आसक्ति, प्रीति-भाव कम होने लगता है। कहने का तात्पर्य यह है कि ज्यों-ज्यों ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार -ये पांच आचारों के पालन की गति बढ़ती जाएगी, त्यों-त्यों आत्म-स्वरूप की सुन्दरता में बढ़ोतरी होने से पर-द्रव्यों के सम्बन्ध में जीवात्मा की आसक्ति (मोह) कम होने लगेगी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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