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हमने बहुत बार मनुष्य-जन्म पाया, परन्तु आध्यात्म-चिंतन नहीं किया। अब आध्यात्मिक-दृष्टि पाकर मोह की छाती में आत्मा के एकत्व का तीर मारना ही है, मोह ममत्व को नष्ट करना ही है।
वार अनन्त चुकीया चेतन। इण अवसर मत चूक ।
मार निशान मोहराय की छाती में मत उक।। इस प्रकार, मोह पर विजय प्राप्त करने के लिए ज्ञानसार में यशोविजयजी ने मोह-अष्टक के माध्यम से, मोह पर विजय किस प्रकार से हो, इसकी चर्चा की है,67 जिसे हम यहाँ यथावत् प्रस्तुत कर रहे हैं -
अहं ममेति मन्त्रोऽयं, मोहस्य जगदान्ध्यकृत्।
अयमेव हि नञ्पूर्वः, प्रतिमन्त्रोऽपि मोहजित्।।1।। 'मैं' और 'मेरा' -यह मोह राजा का मंत्र है, वह जगत् को अंधा और अज्ञानी बनानेवाला है, जबकि इसका प्रतिरोधक मंत्र भी है, जो मोह पर विजय हासिल करानेवाला है।
शुद्धात्मद्रव्यमेवाऽहं, शुद्धज्ञानं गुणो मम।
नान्योऽहं न ममान्ये चे–त्यहो मोहस्त्रमुल्वणम् ।। 2।। मोह का हनन करनेवाला एक ही अमोघ शस्त्र है और वह है : मैं शुद्ध आत्म-द्रव्य हूँ, केवलज्ञान मेरा स्थायी गुण है, मैं उससे अलग नहीं और अन्य पदार्थ मेरे नहीं, इस प्रकार का चिन्तन करना। इससे मोह समाप्त होने लगता है।
यो न मुह्यति लग्नेषु, भावेष्वौदयिकादिषु ।
आकाशमिव पड्.केन, नाऽसौ पापेन लिप्यते।। 3 ।। जो जीव लगे हुए औदायिक भावों में मोहमूढ़ नहीं होता है, वह जीव, जिस तरह कीचड़ से आकाश लिप्त नही होता, ठीक वैसे ही पापों से लिप्त नहीं होता। ___कहने का तात्पर्य यह है कि मोह राजा भले ही अनेकविध बाह्य-आभ्यन्तर आकर्षण पैदा करे, अपना जाल फैलाए, पर जीवात्मा को उसके वशीभूत नहीं होना
67 ज्ञानसार –मोहत्याग, 4, गाथा 25-32, श्री भद्रगुप्तविजयजी, पृ. 39
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