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कर, गाल पर हाथ धरकर दृष्टि जमीन पर रखकर वे सोचने लगी और इस तरह शोकग्रस्त होकर कहने लगी -
पंडितजनों ने सत्य ही कहा है कि अभागियों के घर पर चिंतामणि रत्न नहीं ठहर सकता, दरिद्रियों के घर निधान प्रकट नहीं होता, अल्प पुण्यवालों की अमृत-पान की इच्छा पूरी नहीं हो सकती .......... । हे देव! मुझे धिक्कार हो, तुमने ऐसा क्या किया ? मेरा मनोरथरूपी वृक्ष जड़मूल से उखाड़ दिया। पहले नेत्र देकर फिर छीन लिए। मुझे मेरूपर्वत पर चढ़ाकर जमीन पर पटक दिया। अहो! अहो! क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? किसके आगे पुकार करूँ ? ..........
त्रिशला माता के शोकग्रस्त होने पर राज्य सभा में नृत्य-गीत, गान, वाजिंत्र आदि बन्द करा दिए गए, ऊँची आवाज से कोई बोल नहीं सकता, राजा सिद्धार्थ शोक-सागर में डूब गए, राजमहल सारा शून्य हो गया, सारी राजधानी में शोक छा गया, राजधानी दुःखों का भंडार हो गई। संताप का सागर बन गया, खान-पान-दान-स्नान-बोलना-सोना मानों सब विस्मरण हो गया, तमाम नागरिक शून्य चित्त और विमूढ़ हो गए। इस प्रकार, समग्र क्षत्रियकुंड ग्राम शोक-समुद्र में निमग्न हो गया है।
भगवान् महावीर ने जब अवधिज्ञान से देखा कि मेरे वियोग के कारण मातापिता एवं नगरजन शोकाकुल हो रहे हैं। मातादि को अशुभ कर्मों का बंधन न हो इसलिए उन्होंने शोक का परिहार किया और गर्भ में यह अभिग्रह लिया कि माता-पिता के जीवित रहते मैं दीक्षा नहीं लूंगा, क्योंकि उन्हें अकुशलानुबंधी शोक होगा। यहाँ अकुशलानुबंधी-शोक का तात्पर्य अपने इष्ट के वियोग से है।
35 श्री कल्पसूत्र, जिनआनंदसागरसूरिश्वरजी म.सा., गाथा-92, पृ. 161 86 भगवंइत्थ नायं परिहरमाणे अकुसलाणबंधि अम्मापिइसोगंति। - पंचसूत्र, अध्याय-3 गाथा 8
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