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अर्थात्, जब तक तेरी बुद्धि मोह के दलदल को बिल्कुल छोड़कर ऊपर आएगी और मोह से पार हो जाएगी, तभी तेरी आत्मा कुछ सुनने योग्य होगी और सुनने मात्र से वैराग्य को प्राप्त करेगी।
6. मोह मनुष्य को धर्म से पतित करता है -
___ मोह से आक्रान्त मनुष्य धर्म के प्रति भी उदासीन रहता है। धर्म के प्रति उसके हृदय में श्रद्धा नहीं होती है, पवित्र भाव पैदा नहीं होते हैं। वह धर्म के सुन्दर, सम्यक् श्रेष्ठ प्रभाव को नहीं जान पाता है, क्योंकि उसे संसार ही लुभावना लगता है। उसे मान-सम्मान की चाह, लोभ का संग, कपट द्वारा वस्तुप्राप्ति की चाह, काम-भोग के साधन उसे अच्छे लगते हैं। मोह के कारण उसे सत्य का दर्शन नहीं हो पाता, इसलिए वह अपने निजधर्म और व्यावहारिक धर्म से पतित हो जाता है। निज-धर्म से तात्पर्य स्व-स्वभाव का भान और व्यावहारिक-धर्म, अर्थात् नैतिक-जीवन के आदर्शों सहित समाज में जीना।
7. मोह-ममत्व का बोझ नरक ले जाता है -
मूर्छा कहो, ममत्व कहो, परिग्रह कहो या मोह कहो, अर्थ एक ही है। ममत्व और मोह से रंजित व्यक्ति संसार-सागर के बहुत नीचे सात नरक तक जा सकता है, इसलिए ममत्व, मूर्छा, मोह को तोड़ने का समत्व पाने का उपदेश सभी ज्ञानी पुरुष देते हैं।
. शास्त्रों में उल्लेखित है कि वासुदेव अवश्य नरक में जाते हैं, क्योंकि मृत्यु-पर्यंत परिग्रह का, ममत्व का, त्याग नहीं करते हैं और सभी बलदेव मोक्ष में जाते हैं, क्योंकि वे मृत्यु के पहले परिग्रह का त्याग कर देते हैं। ठीक वैसे ही, जो चक्रवर्ती मृत्यु तक ममत्वबुद्धि बनाए रहते हैं, वह अवश्य सातवीं नरक में जाते हैं, जो मृत्यु के पूर्व ममत्व का त्याग कर देते हैं, वे स्वर्ग अथवा मोक्ष में जाते हैं।
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