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10 यह मोहमय होता है।
10 यह निर्विकार एवं प्रीतिमय होता है।
11 इसकी तृप्ति कभी नहीं होती।
11 इससे सदा तृप्ति रहती है।
है।
12 यह इन्द्रियजगत् के स्तर पर, अर्थात् 12 यह आंतरिक-स्तर पर उपलब्ध होता
बाह्य-स्तर पर प्राप्त होता है। 13 यह संकीर्ण होता है। . 13. यह अनंत रसयुक्त होता है।
14 कामनापूर्ति में इस सुख का भास 14 कामनानिवृत्ति व त्याग से इस सुख का
मात्र होता है। वास्तविक सुख कामना अनुभव होता है, यह वास्तविक सुख पूर्ति में नहीं होता।
होता है। 15 यह निजस्वरूप की स्मृति भुलाता है। 15 यह निजस्वरूप की स्मृति जाग्रत करता
है।
16 यह वक्रता, कठोरता, क्रूरता, क्रोध, 16 यह भव का अंत करता है।
मान, माया, लोभ, राग-द्वेष आदि
दोषों को बढ़ाता है। 17. इसके भोगी को बार-बार मरना 17 यह अमृतरूप है, मृत्युरहित करता है।
पड़ता है, अतः यह विषतुल्य है 18. यह निजस्वरूप से विमुख करता है। 18 इससे निजस्वरूप में रमणता आती है। 19 यह रति-अरतिमय होने से अविरति 19 यह रति-अरतिरहित विरतिमय होता है।
उत्पन्न करता है। नवीन भोग की
पृवृत्ति को जन्म देता है। 20 इसके आदि व अन्त में दुःख होता है 20 इसके आदि, मध्य एवं अंत में सुख
रहता है 21 यह सुख-दुःख का भय पैदा करता 21 यह दुःख के भय से रहित करता है।
. अभय बनाता है। .
22 इसे बलपूर्वक रोक नहीं सकते, इसे 22. इसे सुरक्षित बनाए रखने मे बल व श्रम
सुरक्षित बनाए रख नहीं सकते, जैसे की आवश्यकता ही नहीं होती।
जवानी, बचपन, निरोगता आदि सुख 23 इसमें राग रहता है।
23 यह विरागता या वीतरागता से होता है।
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