Book Title: Jain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Pramuditashreeji

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Page 510
________________ 477 आचारसंहिता है, 124 जो सबके लिए है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है –धर्म जलाशय है और ब्रह्मचर्य घाट (तीर्थ) है उसमें स्नान करने से आत्मा शान्त, निर्मल और शुद्ध हो जाती है। 125 इसी प्रकार, बौद्धदर्शन में भी सच्चे स्नान का अर्थ मन, वाणी और काया से सद्गुणों का सम्पादन माना गया है।126 न केवल जैन और बौद्ध परम्परा में, वरन् वैदिक-परम्परा में भी यह विचार प्रबल था कि धर्म चित्त की यथार्थ शुद्धि या आत्मा के सद्गुणों के विकास में निहित है। आत्मशुद्धि या विकारमुक्तता धर्म से ही प्राप्त की जा सकती है। . __मानव-जीवन में धर्म की उपादेयता अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। धर्म ने ही मानव की आध्यात्मिक और नैतिक-चेतना को जाग्रत कर उसके जीवन को सुव्यवस्थित किया है। महान विद्वान कालिदास ने धर्म को 'त्रिवर्ग' का सार कहा है।127 अर्थ और काम की पूर्ति धर्म द्वारा ही होती है। मानव-इतिहास की पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि धर्म मानव-जाति का वह सहायक, संरक्षक और संबल है, जो उसके समस्त दुःखों का समूल नाश कर शान्ति और सौहार्द्र की उत्पत्ति करता है। 1. धर्म व्यक्ति को उच्च स्थिति में स्थिर करता है - धर्म व्यक्ति को संसरणात्मक-जगत् से ऊपर उठाकर निर्विकार शुद्ध चैतन्यभाव में पहुंचा देता है। जिस तरह गीले बिछावन पर पड़े रो रहे बालक को उसके माता-पिता दूसरे स्वच्छ और मुलायम बिछावन पर लिटा देते हैं, उसी प्रकार सांसारिक-बन्धन में पड़े दुःखी मानव को धर्म आध्यात्म के निर्मल, स्वच्छ और 124 धर्म जीवन जीने की कला - सत्यनारायण गोयनका, पृ. 7 125 धम्मे हरए, बंभे सन्तितित्थे अणविले अत्तपसन्नलेसे। जहिंसि पहाओ विमलो विसुद्धो सुसीइभूओ पजहामि दोसं ।।- उत्तराध्ययनसूत्र 12/46 126 जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग-2, डॉ. सागरमल जैन पृ. 497 127 अनेन धर्मः सविशेषमद्यः मे। त्रिवर्ग सारः प्रतिभाति भाविनि। त्वया मनोनिर्विषयार्थ कामया। यदेक एवं प्रतिगृह्य सेव्यते।। – कालिदास, कुमारसंभवम्-5/38 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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