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गीता के अनुसार, आसुरी-सम्पदा बन्धन का हेतु है। उसमें टम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, पारुष्य एवं अज्ञान को आसुरी-सम्पदा कहा गया है। श्रीकृष्ण कहते हैं – दम्भ, मान, मद से समन्वित आसक्ति (कामनाओं) से युक्त तथा मोह (अज्ञान) से मिथ्यादृष्टित्व को ग्रहण कर प्राणी असदाचरण से युक्त हो संसार–परिभ्रमण करते हैं। वहाँ कहा गया है कि मोह-जाल में आवृत्त और कामभोगों में आसक्त पुरुष अपवित्र नरकों में गिरते हैं।' इच्छा, द्वेष और तज्जनित मोह से सभी प्राणी अज्ञानी बन संसार के बन्धन को प्राप्त होते हैं। डॉ.सागरमल जैन ने अपने शोध-प्रबंध में कहा है -यहाँ गीताकार राग, द्वेष और मोह के इन तीन कारणों की व्याख्या ही नहीं करता, वरन् इच्छा-द्वेष से उत्पन्न मोह कहकर जैनदर्शन के समान राग, द्वेष और मोह की परस्पर सापेक्षता को भी अभिव्यक्त कर देता है।
सांख्य योगदर्शन के योगसूत्र में बन्धन या क्लेश के पांच कारण माने गए हैं1. अविद्या (मोह), 2. अस्मिता (अहंकार), 3. राग (आसक्ति), 4. द्वेष और 5. अभिनिवेश (मृत्यु का भय)। इनमें भी अविद्या (मोह) ही प्रमुख कारण है, क्योंकि मोह सहित रागद्वेष का समावेश भी अविद्या में हो जाता है।
न्यायदर्शन में जैनदर्शन के समान बन्धन के मूलभूत तीन कारण माने हैंराग,द्वेष और मोह। राग के भीतर काम, मत्सर, स्पृहा, तृष्णा, लोभ, माया तथा दम्भ का समावेश होता है तथा द्वेष में क्रोध, ईर्ष्या, असूया, द्रोह (हिंसा) तथा अमर्ष का समावेश होता है। मोह में मिथ्याज्ञान, संशय, मान और प्रमाद होते हैं, क्योंकि राग-द्वेष और मोह अज्ञान से ही उत्पन्न होते हैं।
35 गीता, 18/15 36 वही, 16/10 37 गीता, 16/16 38 वही, 7/27 गीता (शा) 7/27 9 जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन-डॉ.सागरमल जैन, भा.1,पृ.65 40 अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः । -. योगसूत्र, 2/3 4 नीतिशास्त्र, पृ. 63
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