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उपर्युक्त विवेचन को सारांश रूप में कहें, तो लगभग सभी धर्मदर्शनों में कर्मबन्ध या दुःख का मूल कारण मोह ही माना है।
2. दुःखों का मूल मोह है -
___ 'ईसिभासियाई' में दुःखों का मूल कारण मोह को बताया है। वस्तुतः, मोहनीय कर्म को आत्मा का 'अरि' (शत्रु) कहा है, क्योंकि वह समस्त दुःखों की प्राप्ति में निमित्त कारण है। मोहनीय-कर्म के बिना शेष कर्म अपने-अपने कार्य की उत्पत्ति करते हुए नहीं पाए जाते हैं। मोह केन्द्रीय कर्म है और शेष कर्म उसके अधीन हैं। यद्यपि मोहनीय-कर्म की सत्ता नष्ट होने पर भी अघाती-कर्मों की सत्ता रहती है, फिर भी ऐसा इसलिए कहा जाता है कि मोहनीय के नष्ट होते ही जन्म-मरणादि से घिरे हुए दुःखरूप संसार के उत्पादन की सामर्थ्यता उन अघाती-कर्मों में नहीं रहती है। आयुष्यकर्म की समाप्ति होने पर शेष रहे तीन अघाती कर्म भी समाप्त हो जाते हैं। इसी कारण से, मोहकर्म को सभी कर्मों का राजा कहा गया है। दशाश्रुतस्कंध में कहा है - जिस वृक्ष की जड़ सूख गई हो, उसे कितना ही सींचिए, वह हरा-भरा नहीं होता, उसी प्रकार मोह के क्षीण होने पर कर्म भी फिर से हरे-भरे नहीं होते। इसिभासियाइं में कहा है – मूल को सींचने पर ही फल लगते हैं। मूल नष्ट होने पर फल भी नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार जब तक मोह है, तब तक जन्ममरणादि के दुःख हैं।45 मोह के समाप्त होने पर जन्म-मरण के चक्ररूपी दुःख भी समाप्त हो जाते हैं।
णि। - इसिभासियाई 2/7
431) धवला, 1, 1, 1/43
कर्मवाद, पृ. 60 सुक्कमूले जधा रूक्खे, सिच्चमाणे ण रोहति।
एवं कम्मा न रोहंति, मोहविज्जे खजं गते।। - दशाश्रुतस्कंध- 5/1 __मूलसिते फलुप्पत्ती, मूलघाते हतं फल। - इसिभासियाइं- 1/6
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