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वस्तुतः, चारित्रमोह को दो भागों में विभक्त किया गया है – कषायमोह और नोकषाय - मोह | 16
कषाय, अर्थात् जो आत्मा के स्वाभाविक - गुणों शान्ति, मृदुता, ऋजुता और समता आदि को कृश या नष्ट करे, उसे कषाय कहते हैं। 17 मोहजन्य कषायिकभावों के कारण संसार - परिभ्रमण की वृद्धि होती है, क्योंकि कषाय ही कर्मबन्ध का विशिष्ट हेतु है । कषाय के कारण ही कर्मों का स्थितिबन्ध और रसबन्ध होता है और जब तक ये दोनों हैं, तब तक जीव मुक्त नहीं हो सकता, क्योंकि बन्ध के अन्य कारण मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद भी कषाय के उदय से ही निष्पन्न होते हैं 1
दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है - क्रोधादि चारों कषाय संसाररूपी वृक्ष (जन्म-मरणरूपी चक्र) के मूल का सिंचन करते हैं 18 क्योंकि रसबन्ध और स्थितिबन्ध का सबसे बड़ा आधार अगर कोई है, तो कषाय ही है। वस्तुतः, इन चारों कषायों, अर्थात् क्रोध, मान, माया, और लोभ की चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं, अतः यहाँ उनके विस्तार में जाना उचित नहीं होगा, फिर भी हम इतना तो कह सकते हैं कि जब तक कषाय की सत्ता है, तब तक मोह रहता है ।
चारित्रमोहनीय का दूसरा उपप्रकार नोकषाय है । नोकषाय शब्द दो शब्दों के योग से बना है। नोकषाय जैन- दार्शनिकों ने 'नो' शब्द को साहचर्य के अर्थ में ग्रहण किया है, 'नो' का अर्थ - ईषत्, अल्प अथवा सहायक है, अतः हम इन्हें अल्प या छोटे कषाय अथवा सहायक कषाय कह सकते हैं । वस्तुतः, नोकषाय प्रधान कषायों
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161) चरित्तमोहणं कम्मं दुविहे तु वियाहि यं । कसाय - मोहणिज्जंतु नोकसायं तहेव यं ।
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उत्तराध्ययनसूत्र 33/10 2) दुविहं चरित - मोहं - कसायवेयणीयं नोकसायमिदि - कम्मपयडी, 55 3) प्रज्ञापनासूत्र 23/2
171)
3)
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कषः संसारस्तस्य आयो लाभ इति कषायः ।
चारित्र परिणामकषणात् कषायः - तत्त्वार्थराजवार्त्तिक 9/7
कष्यन्ते हिंस्यन्ते परस्परमस्मिन् प्राणिन इति कषः । कषमयन्ते गच्छन्त्येभिर्जन्तवः इति कषायाः । ।
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प्रथम कर्मग्रन्थ टीका गा. 17
दशवैकालिकसूत्र 8 /40
चत्तारि एए कसिणा कसाया सिंचंति मूलाणि पुणव्भवस्स ।
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अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड- 4, पृ. 2161
जैन बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
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डॉ.सागरमल जैन, पृ.503
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