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इस प्रकार, जहाँ मोह की सत्ता होती है, वहाँ जन्म-मरण की परंपरा सतत रूप से चलती रहती है, क्योंकि जैनाचार्यो की मान्यता है कि जब तक व्यक्ति मोह जन्य कषायों से ग्रसित है, तब तक मुक्ति संभव नहीं है । मुक्ति के लिए कषायों पर अर्थात् मोह पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है ।
मोह मोक्ष में बाधक
जो अपना नहीं है, उसके प्रति ममत्व की भावना रखना मोह है । वस्तुतः, मोह मोक्ष में बाधक है । 'तत्वार्थसूत्र' के दसवें 'मोक्ष' अध्ययन के प्रथम सूत्र में कहा गया है - "मोह के क्षय होने पर और ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय के क्षय से केवलज्ञान प्रकट होता है । "26 वाचक उमास्वाति के अनुसार, मोह को सर्वप्रथम रखने का मूल कारण यह है कि सभी कर्मों के बंध का प्रधान कारण मोह ही है। जहाँ मोह है, वहाँ राग-द्वेष है, जहाँ रागद्वेष हैं, वहाँ कषाय हैं, जहाँ कषाय है, वहाँ नो कषाय हैं, जहाँ नोकषायादि हैं, वहाँ अठारह पापस्थानों का सेवन होता है और जहाँ अठारह पापस्थानों का सेवन होता है, वहाँ निश्चित रूप से कर्मबंध होता है । उत्तराध्ययन में कहा गया है – “कर्मबंध के बीज रागद्वेष हैं और राग- - द्वेष की उत्पत्ति मोह से होती है। वह मोह ही जन्म-मरण का मूल कारण है और जन्म-मरण की यह परम्परा ही वास्तव में दुःख है।"27 जब तक मोह को नष्ट नहीं करेंगे, तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता ।
"मोह के नष्ट होने पर ही तृष्णा, दुःख, लोभ, परिग्रह – सभी नष्ट हो जाते हैं।" 28 मोहकर्म सब कर्मों में सबसे बलवान् है, क्योंकि मोह व्यक्ति के दर्शन और चारित्र - गुण को दूषित करता है । दर्शन - गुण के दूषित होने पर जो पदार्थ जैसा है,
26 मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । - तत्त्वार्थसूत्र 10/1
27 रागो य दासो वि य कम्मबीयं कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति । कम्मं न जाई - मरणस्स मूलं दुक्खं च जाई - मरणं वयन्ति ।।
28 वही, 32/8
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उत्तराध्ययनसूत्र, 32/7
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