________________
तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति कहते हैं कि बंध के कारणों का अभाव हो जाने और निर्जरा होने से कर्मों का अत्यन्त अभाव हो जाना, उनका संपूर्णतः नष्ट हो जाना, मोक्ष है। 3
139
वस्तुतः मोक्ष अकेला पाने की वस्तु नहीं है। इस संबंध में विनोबा भावे के उद्गार विचारणीय हैं - " जो समझता है कि मोक्ष अकेले हथियाने की वस्तु है, वह उसके हाथ से निकल जाता है, 'मैं' के आते ही मोक्ष भाग जाता है; मेरा मोक्ष - यह वाक्य ही गलत है। 'मेरा' मिटने पर ही मोक्ष मिलता है | 140
धर्म एक अमृत तत्त्व है और वह सार्वजनिक है, सार्वकालिक है, सार्वभौमिक है, सर्वदा और सर्वथा उपादेयरूप है। इस विराट् विश्व में मानव एक सर्वश्रेष्ठ और सर्वज्येष्ठ प्राणी है। उसके अमूल्य जीवन का लक्ष्य मुक्ति - प्राप्ति है। यही उसका चरम और परम साध्य - - बिन्दु है । इस साध्य की सिद्धि में धर्म प्रधान आधार है । धर्म वस्तुतः एक ऐसा राजपथ है जो हमें मुक्ति प्रासाद में पहुंचा देता है । धर्म और मुक्ति - दोनों एक-दूसरे के सम्पूरक हैं। इनका जो संबंध है, वह अभिन्न है, अच्छेद्य और अभेद्य है।
485
-000
139 बंधहेत्वभावनिर्जराभ्याम् कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः । - तत्त्वार्थसूत्र - 10/2–3 140 आत्मज्ञान और विज्ञान, पृ. 71
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org