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गया है -“सम्यग्दृष्टिसम्पन्न व्यक्ति को कर्म का बंध नहीं होता है, लेकिन सम्यग्दर्शन से विहीन व्यक्ति संसार में परिभ्रमण करता रहता है। 39 बौद्धदर्शन में भी मिथ्या दृष्टिकोण को संसार का किनारा एवं सम्यक् दृष्टिकोण को निर्वाण का किनारा माना गया है। सम्यग्दर्शन के श्रद्धापरक अर्थ के सन्दर्भ में गीता में भी कहा गया है कि – श्रद्धावाल्लभते ज्ञानम्, अर्थात् श्रद्धावान् ही ज्ञान को प्राप्त करता है।" आध्यात्मयोगी आनन्दघनजी लिखते हैं कि जिस प्रकार राख पर लीपना व्यर्थ है, उसी प्रकार शुद्ध श्रद्धा के बिना समस्त क्रिया व्यर्थ है, इसीलिए 'सम्यग्दर्शन' को 'मुक्ति का अधिकार-पत्र' कहा जाता है।
सम्यग्दर्शन जीवन की अमूल्य निधि है। जिसे यह अमूल्य निधि प्राप्त हो जाती है, वह शूद्र भी देवतुल्य है – ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। कहा जाता है कि श्रीकृष्ण के पास सुदर्शन चक्र था, जिससे सम्पूर्ण शत्रुओं को पराजित करके वे त्रिखण्ड के अधिपति बन गए। यदि आत्मारूपी कृष्ण के भी सम्यग्दर्शनरूपी सुदर्शनचक्र है तो वह भी कषायरूपी शत्रुओं को पराजित कर एक दिन त्रिलोकीनाथ बन सकता है। कहा गया है कि धर्मरूपी मोती सम्यग्दर्शनरूपी सीप में ही पनपता है।
सम्यग्ज्ञान -
रत्नत्रय में दूसरा रत्न सम्यग्ज्ञान है, जो धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करता है। सभी आध्यात्मिक-दर्शनों में ज्ञान को आत्मा का मूल गुण माना गया है। ज्ञान के द्वारा ही व्यक्ति अपने हित-अहित, उचित-अनुचित, श्रेय-प्रेय अथवा हेय-ज्ञेय एवं
89 सम्यकदर्शन सम्पन्नः कर्मभिर्न निबद्धयते
दर्शनेन विहीनस्तु, संसारं प्रतिपद्यते। - मनुस्मृति, 6/74 20 अंगुत्तरनिकाय - 10/12 (उद्धत-जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन) 91 गीता - 17/3 2 आनन्दघन चौबीसी-स्तवन 9 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, विभाग, डॉ.सागरमल जैन, पृ.51 94 रत्नकरण्डश्रावकाचार-28
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