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अध्याय-12 धर्म-संज्ञा {Instinct of Religion}
संज्ञाओं का जो षोडषविध वर्गीकरण' है, उसमें सर्वप्रथम आहारादि चार संज्ञाओं का विवेचन किया गया है। उसके बाद दसविध संज्ञाओं में चार कषायरूप संज्ञाओं (क्रोध, मान, माया, लोभ} के साथ-साथ लोक-संज्ञा और ओघ-संज्ञा का विवेचन आता है। जहाँ तक संज्ञाओं के षोडषविध वर्गीकरण का प्रश्न है, उसमें एक संज्ञा धर्मसंज्ञा भी है। वस्तुतः धर्मसंज्ञा मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से क्षमा, मार्दव आदि धर्मों के सेवन रूप है। आचारांगसूत्र' में शास्त्रकार ने संज्ञा का अर्थ चेतना {Consciousness} किया है। यहाँ चेतना का तात्पर्य धार्मिकता की चेतना से है। इसमें उन तथ्यों का विवेचन होता है, जो हमें धर्म की ओर अग्रसर करते हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि धर्म का सारतत्व भावना {Feeling} है। धर्म तर्क-वितर्क एवं वाद-विवाद का विषय न होकर अनुभूति, विश्वास एवं श्रद्धा का विषय है। यह धर्म का प्राथमिक अर्थ है।
धर्म को अंग्रेजी में 'रिलीजन' [Religion) कहा जाता है। रिलीजन शब्द रि+लीजेर से बना है। इसका शाब्दिक अर्थ होता है - फिर से जोड़ देना। धर्म मनुष्य को मनुष्य से और आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला है। धर्म का अवतरण मनुष्य को शाश्वत शांति एवं सुख से योजित करने के लिए हुआ है, जो मानवीय एकता के आधार पर ही संभव है।
11) आचारांगसूत्र 1/1/2 2) जीवसमास, अनु. साध्वी विद्य्युतप्रभाश्री, पृ. 71 प्रवचनसारोद्धार, सा. हेमप्रभाश्री, द्वार 146, पृ. 81_
आचारांगसूत्र- 1/1/2, अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, पृ.4 'धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म – डॉ. सागरमल जैन, पृ.2
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