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इसे ही जैन-दार्शनिकों ने मिथ्यात्व कहा है। रात्रि के अन्धकार को दूर किए बिना जैसे सहस्त्ररश्मि सूर्य उदित नहीं होता, वैसे ही मिथ्यात्वरूपी अन्धकार को नष्ट किए बिना सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं होता। 2 जब आत्मा में सम्यग्दर्शन का प्रादुर्भाव होता है, तब वह आत्मा जीव और अजीव का पृथक्त्व समझ लेता है। मैं जड़ नहीं चेतन हूँ, मेरा स्वरूप शुद्ध. चेतना है, मुझमें राग, द्वेष आदि की जो विकृति है, वह जड़ के संसर्ग से है, मैं सम्प्रति कर्मों से बद्ध हूँ, किन्तु कर्मों को नष्ट कर एक दिन मैं अवश्य ही मुक्त बनूंगा -इस प्रकार की निष्ठा उसके अन्तर्मानस में जाग्रत होती है और यही भावना सम्यग्दर्शन को निर्मल कर मोक्ष-पथ पर अग्रसर करती है।
जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन-प्राप्ति के दो कारण हैं – एक, नैसर्गिक और दूसरा, अधिगमिक । जो दूसरे के उपदेश के बिना स्वयं अपने आप से उत्पन्न होता है, उसे नैसर्गिक-सम्यग्दर्शन कहते हैं तथा गुरु आदि के उपदेश -श्रवण, मनन, अध्ययन या परोपदेश से जो निष्ठा जाग्रत होती है, वह अधिगमिक-सम्यग्दर्शन है।
सम्यग्दर्शन के लक्षण -
जैनदर्शन में सम्यक्त्व के गुण-रूप पांच लक्षण स्वीकार किए हैं। किसी प्राणी में सम्यग्दर्शन है या नहीं, इसकी पहचान के लिए ज्ञानियों ने सम, संवेग, निर्वेद,
81 मिथ्या विपरीता दृष्टिर्यस्य स मिथ्यादृष्टि: - कर्मग्रन्थ टीका-2 82 अनिर्दूय तमो नैशं; यथा नोदयतेऽशुमान्। .
तथानुद्भिद्य मिथ्यात्वतमो नोदेति दर्शनम्।। - महापुराण, 119/9/200 83 1) तन्निसर्गादधिगमाद्वा - तत्त्वार्थसूत्र 1/3
ज्ञानार्णव - 6/6 3) स्थानांगसूत्र - 2/1/70 4) पंचाध्यायी - 2/658-659 5) अनगारधर्मामृत - 2/47/171
शम-संवेग-निर्वेदाऽनुकम्पाऽऽस्तिक्यलक्षणैः।। लक्षणे: पंचभिः सम्यक् सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते।। - योगशास्त्र 2/15
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