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परम (सुख) धर्मी मानता है। टीकाकारों ने परम शब्द का अर्थ सुख करते हुए इस प्रकार व्याख्या की है – पृथ्वी आदि स्थावर प्राणी और द्वीन्द्रिय आदि त्रस–प्राणी -इस प्रकार सर्व प्राणी परम अर्थात् सुखधर्मी हैं, सुखाभिलाषी हैं। सुख की अभिलाषा करना प्राणियों का नैसर्गिक स्वभाव है। आचारांगसूत्र में भी कहा है -"सभी प्राणियों को सुख प्रिय है, अनुकूल है और दुःख अप्रिय है, प्रतिकूल है।"57
वस्तुतः, सुखवाद की चर्चा प्रायः सभी भारतीय एवं पाश्चात्य-चिन्तकों ने की है। सुखवादियों के अनेक उपसम्प्रदाय हैं, उनमें मनोवैज्ञानिक-सुखवाद और नैतिकसुखवाद प्रमुख हैं। मनोवैज्ञानिक-सुखवाद एक तथ्यपरक सिद्धान्त है, जिसके अनुसार यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि व्यक्ति सदैव सुख के लिए प्रयास करता है, जबकि नैतिक-सुखवाद की विचारधारा यह मानकर चलती है कि सुख का अनुसरण करना चाहिए या सुख ही वांछनीय है। नैतिक-सुखवाद के विचारकों में मिल प्रभृति कुछ विचारक नैतिक-सुखवाद को मनोवैज्ञानिक-सुखवाद पर आधारित करते हैं। मिल का कहना है कि कोई वस्तु या विषय काम्य है -इसका प्रमाण यह है कि लोग वस्तुतः उसकी कामना करते हैं। सामान्य सुख काम्य है, इसके लिए इसे छोड़कर कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता है। प्रत्येक मनुष्य सुख की कामना करता है,58 लेकिन सुखवाद को मनोवैज्ञानिक आधार पर खड़ा करने का मिल का यह प्रयास तार्किक-दृष्टि से ठीक नहीं है। यदि सभी मनुष्य स्वभावतः सुख की कामना करते हैं, तो फिर, 'सुख की कामना करना चाहिए' इस कथन का कोई अर्थ नहीं रह जाता, जबकि नैतिक-आदेश के लिए 'चाहिए' आवश्यक है, लेकिन मनोवैज्ञानिकसुखवाद इस 'चाहिए' के लिए कोई अवकाश नहीं छोड़ता। इसी कारण, सिजविक
55 सव्वेपाणा परमाहम्मिआ - दशवैकालिकसूत्र 4/9 6 दशवैकालिक टीका, पृ. 46 57 सव्वे सुहसाया दुक्खडिकला। - आचारांगसूत्र 1/2/3/81 58 1) नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ. 161 पर उद्धृत
2) जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-1, डॉ. सागरमल जैन, पृ.122
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