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होती है। शक्ति की हीनता का अनुभव, भयवेदनीय-कर्म का उदय, भय की बात सुनना और भय के विषय में चिन्तन करना - ये भयसंज्ञा के कारण है। अत्यन्त भयंकर पदार्थ को देखने से, अथवा पहले देखे हुए भयंकर पदार्थ के स्मरण आदि से, शक्ति के हीन होने पर और भयकर्म के उदय या उदीरणा होने पर भयसंज्ञा होती है।" आचारांगनियुक्ति-टीका में मोहनीयकर्म के उदय को भयसंज्ञा का कारण बताया है।12 भयसंज्ञा के उदय से भयभीत प्राणी के नेत्र तथा मुख में विकारोत्पत्ति, शरीर में रोमांच, कम्पन, घबराहट आदि मनोवृत्तिरूप क्रियाएं होती हैं। मनुष्य में भयसंज्ञा सबसे कम होती है तथा नारकियों में सबसे अधिक होती है, क्योंकि उनमें लगातार मृत्यु का भय बना रहता है।
प्रायः, प्रत्येक प्राणी को किसी-न-किसी के भय से संत्रस्त देखा जाता है। चाहे वे मनुष्य हों या देव, तिर्यंच हों या नारकी के जीव, अल्प या अधिक भय तो सभी में होता है। यह भय होता क्या है ? इसके लक्षण क्या हैं ?
भय मनुष्य के एक विचार से ज्यादा कुछ नहीं है। यह दिमाग में उठने वाली एक तरंग है। यह कोई वस्तु नहीं, अपितु मनःस्थिति है, जो प्राणी द्वारा ही निर्मित होती है। भय वास्तव में एक अंधेरी राह है, जहां केवल नकारात्मक-भाव ही पैदा होते हैं, पलते हैं और पनपते हैं, जैसे – अगर इस राह पर कदम बढ़ा लिया, तो पुनः लौटना और पार होना – दोनों ही मुश्किल हैं। व्यक्ति एक भय से ही दूसरे भय को जन्म देता है। प्रारम्भ में भय छोटे रूप में होता है। फिर यह बड़ा मानसिक रोग भी बन जाता है। भय अतीत की यादों से, या भविष्य की आकांक्षाओं
'तत्त्वार्थसार, 2/36 का भावार्थ, वीरसेवा मंदिर ट्रस्ट, वाराणसी, पृ.46 10 चउहिं ठाणेहिं आहारसण्णा समुप्पज्जपि, तं जहा ओमकोट्ठताए
छहावेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवओगेणं।। - ठाणं 4/579 " गो. जी. 134 12 आचारांगनियुक्ति टीका, गाथा-36 । पण्णवणा - 8/725 " वही, 8/5/9
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