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चेष्टाओं से रहित होकर वह एकाग्रता को प्राप्त करके साधक अतीव अनासक्त-भाव या वीतरागता को प्राप्त कर लेता है।107
___ उदासीन–भाव में निमग्न, सब प्रकार के प्रयत्न से रहित और परमानन्द-दशा की भावना करनेवाला योगी किसी भी जगह मन को नहीं जोड़ता है। इस प्रकार, आत्मा जब मन की उपेक्षा कर देती है तो वह उपेक्षित मन इन्द्रियों का आश्रय नहीं करता और वासना को उत्पन्न होने के स्रोत को ही समाप्त कर देता है। जैसेवायुविहीन स्थान में स्थापित दीपक निराबाध प्रकाशमान होता है, उसी प्रकार मनोवृत्तियों की चंचलतारुपी वायु का अभाव हो जाने से आत्मा में कर्म-मल से रहित शुद्ध आत्मज्ञान का प्रकाश होता है।108
जैनाचार्यों ने इस प्रकार वासनाओं एवं मन के विलयन की जो अवस्था बतायी, वह सहज ही साध्य नहीं है, इसलिए वासनाओं को समाप्त करने का वास्तविक उपाय ब्रह्मचर्य, अर्थात् मैथुन-संज्ञा पर विजय हो सकती है, क्योंकि भोगों के माध्यम से वासना की तृप्ति हो जाती है, परन्तु उसका अभाव नहीं होता। वह दोगुने वेग से पुनः उभरती है। प्रारम्भिक दशा में श्रावक में इतनी सामर्थ्य नहीं होती है कि वह ब्रह्मचर्य-महाव्रत का पालन कर सके, अतः उसके लिए स्वपत्नी-संतोषव्रत109 बताया गया है। दम्पत्ति एक-दूसरे से सन्तुष्ट और प्रसन्न रहें, दाम्पत्य की मर्यादा के बाहर आकर्षण का अनुभव न करें। पुरुष के लिए एक ही पत्नी और स्त्री के लिए एक ही पति की मर्यादा हर प्रकार से उचित, न्यायसंगत और निरापद सिद्ध हुई है। गृहस्थों के लिए यही 'ब्रह्मचर्य-अणुव्रत' है।
107 योगशास्त्र - 12/23-25 108 वही - 12/33-36 109 उपासकदशांग - 1/44
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