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माया के चार प्रकार - 1. अनंतानुबन्धी-माया (तीव्रतम कपटाचार) __अनंतानुबन्धी माया कठिन बांस के मूल के समान कही गई है। जिस प्रकार वन में उत्पन्न हुए मजबूत बांस का मूल भाग अत्यधिक वक्र एवं मजबूत होने से अनेक बार खींचने पर भी खिसकता नहीं है, वह टूट जाता है, पर वक्रता का त्याग नहीं करता, उसी प्रकार अनंतानुबंधी-माया के मलिन परिणामों से युक्त जीवात्मा अपने जीवन को मृत्यु के यज्ञ में होमने के लिए तैयार हो जाता है, परन्तु अपनी वक्रता को किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ता है।
2. अप्रत्याख्यानी-माया (तीव्रतर कपटाचार)
अप्रत्याख्यानी-माया भैंस के सींग के समान कुटिल कही गई है। भैंस का सींग वक्र होता है, वह वक्रता अत्यधिक परिश्रम करने पर ही समाप्त होती है, उसी प्रकार अप्रत्याख्यानी मायावी जीवात्मा की वक्रता अति परिश्रम के बाद ही समाप्त होती है।
3. प्रत्याख्यानी माया (तीव्र कपटाचार)
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प्रत्याख्यानी-माया गोमूत्रिका के समान कही गई है, वह धारा वक्र और टेढ़ी-मेढ़ी होती है, परन्तु हवा से उड़ती मिट्टी अथवा पिछले पांव से उड़ती धूल से जिस प्रकार वह वक्रता शीघ्र नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार प्रत्याख्यानी माया से युक्त जीवात्मा की वक्रता भी कुछ समय पश्चात् समाप्त हो जाती है। 4. संज्वलन माया (अल्प कपटाचार)
संज्वलन माया बांस की छाल के समान है। जिस प्रकार वह मुड़ जाती है और सीधी भी हो जाती है, उसी प्रकार संज्वलन मायायुक्त जीव शीघ्र ही माया या प्रपंच का त्याग कर देता है और सरलता धारण कर लेता है।
26 क) प्रथम कर्मग्रंथ - गाथा. 19-20
ख) चउविधा माया पण्णता, तं जहा....अणंतानुबंधीन माया, अपच्पक्खाणकसाया.| -स्थानांगसूत्र 4/1/86
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