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चाणक्यनीति में कहा है – “एक जन्म से अन्धा होता है, उसे दिखाई नहीं देता, कामान्ध को कुछ भी नहीं दिखता, जो नशा करके मदोन्मत्त हो जाए, उसे भो कुछ दिखाई नहीं देता और जो किसी स्वार्थ के लोभ से अन्धा हो जाता है, उसे भी किसी काम में कोई दोष दिखाई नहीं देता। 23
हितोपदेश में लोभ को सब पापों की जड़ कहा गया है- "लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है, लोभ से ही कामना उत्पन्न होती है, लोभ से ही मोह पैदा होता है तथा लोभ से ही नाश होता है। इसलिए लोभ को पाप का हेतु (कारण) समझा गया है।"24
श्रीमद्भगवद् गीता में काम, क्रोध और लोभ को नरक का द्वार बताया गया है, जो आत्मा को अधोगति प्रदान करते हैं, अतः इन तीनों का ही त्याग करना चाहिए। लोभ के स्वरूप को बतलाते हुए हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र में स्पष्ट कहा है -“जैसे लोहा आदि सब धातुओं का उत्पत्तिस्थान खान है, वैसे ही प्राणातिपात आदि समस्त दोषों की खान लोभ है। यह समस्त गुणों को निगल जाने वाला राक्षस है, आफत (दुःख) रूपी बेलों का कन्द (मूल) है। वस्तुतः, लोभ धर्म-अर्थ-काम और मोक्षरूपी पुरुषार्थों में बाधक है। अतः लोभ दुर्जेय है।
जैसे सभी पापों में हिंसा बड़ा पाप है, सभी कर्मों में मिथ्यात्व महान् है और समस्त रोगों में क्षयरोग भयानक है, वैसे ही सब अवगुणों में लोभ महान् अवगुण है। वस्तुतः ऐसा कहते हैं कि लोभ पापों का मूल है। लोभी व्यक्ति को सम्पूर्ण संसार की
23 न पश्यति च जन्मान्धः. कामान्धो नैव पश्यति।
न पश्यति मदोन्मत्तो, ह्यर्थी दोषान् न पश्यति।। - चाणक्यनीति 6/7 24 लोभात्क्रोधः प्रभवति, लोभात्कामः प्रजायते।
लोभान्मोहश्च नाशश्च, लोभः पापस्य कारणम् ।। – हितोपदेशमित्र 26 25 त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । . कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।। - गीता, 16/21 26 आकरः सर्वदोषाणां गुणग्रसनराक्षसः।
कन्दो व्यसनवल्लीना, लोभः सर्वार्थबाधकः।। - योगशास्त्र 4/18
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