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स्थानांगसूत्र में 16 लोभ को आमिषावर्त कहा गया है। जिस प्रकार मांस के लिए गिद्ध आदि पक्षी चक्कर काटते हैं, उसी प्रकार लोभी मनुष्य इष्ट पदार्थों की प्राप्ति के लिए उद्यमशील रहता है।
आचारांगसूत्र में वर्णन है” – सुख की कामना करने वाला लोभी बार-बार दुःख को प्राप्त करता है।
प्रशमरति में 18 लोभ को सब विनाशों का आधार, सब व्यसनों का राजमार्ग बताया है।
सूत्रकृतांग में 19 उल्लेख है - यह मेरा है, वह मेरा है, इस ममत्वबुद्धि के कारण ही बाल जीव विलुप्त होते हैं। आगे कहा है - यथावसर संचित धन को तो दूसरे उड़ा लेते हैं और संग्रही को अपने पापकर्मों का दुष्फल भोगना पड़ता है। क्योंकि लोभ मुक्ति-मार्ग का बाधक है।"
ज्ञानार्णव में लोभ को अनर्थ का मूल, पाप का बाप कहा गया है। इस लोभ से पीड़ित हुआ पुरुष अपने मालिक, गुरु, बन्धु (हितैषी), वृद्ध, स्त्री, बालक तथा क्षीण, दुर्बल, अनाथ, दीनादिकों को भी निःशंकता से मारकर धन को ग्रहण करता है।
मनुष्य तब तक ही मित्रता का पालन करता है, चारित्र-बल में वृद्धि करता है, आश्रितों का सम्यक रीति से पोषण करता है, जब तक वह इस लोभ के वशीभूत न हो, क्योंकि लोभ से ग्रस्त व्यक्ति को कुछ भान ही नहीं होता। वह अपनी मस्ती में मस्त बना रहता है।
16 आमिसावतसमाणे लोभे ......... | – स्थानांगसूत्र, 4, उ.4, सू. 653 " सुहट्ठी लालप्पभाणे सएण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति ...... । आचारांगसूत्र अ.2, उ.6, सू. 151 18 सर्व विनाशाश्रायिण .........। - प्रशमरति, गा. 29 1" ममाई लुप्पई बाले ....... | – सूत्रकृतांग 1/1/1/4 20 अन्ने हरंति तं वित्तं, कम्मी कम्मेहि किच्चती - वही, 1/9/4 " इच्छालोभिते मुत्तिमग्गस्स पलिमंथू। - स्थानांगसूत्र 6/3 22 स्वामिगुरूबन्धुवृद्धनबलाबालांश्च जीर्णदीनादीन्। व्यापाद्य विगतरांको लोभा” वित्तमादत्ते।। - ज्ञानार्णव, सर्ग 9/गा.70
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