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लोभ चार प्रकार का होता है -
स्थानांगसूत्र' तथा प्रज्ञापनासूत्र में लोभ के चार प्रकार निम्न हैं -
आभोगनिवर्तित, अनाभोगनिवर्तित, उपशान्त और अनुपशान्त ।
1. आभोगनिवर्तित-लोभ -
वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि ने 'आभोग' का अर्थ ज्ञान किया है।43 लोभ के दुष्परिणामों को जानते हुए भी लोभ करना आभोगनिवर्तित लोभ कहलाता है। व्यक्ति जानता है कि लोभ करने से संग्रहवृत्ति और कर्मबंध होता है, पर फिर भी धन कमाने के लिए वह दिन-रात मेहनत करता रहता हैं। 2. अनाभोगनिवर्तित-लोभ -
लोभ के दुष्परिणाम से अनजान होकर लोभ करना अनाभोगनिवर्तित-लोभ है। आदत से मजबूर होकर लाभ-हानि का विचार किए बिना अकारण या निष्प्रयोजन लोभ करना अनाभोगनिवर्तित है, जैसे- मम्मण सेठ के पास धन की कोई कमी नहीं थी, फिर भी आदत के कारण वह धन का लोभी था।
3. उपशान्त-लोभ -
सुप्त लोभ-संस्कार उपशान्त-लोभ हैं। 4. अनुपशान्त-लोभ -
उदय को प्राप्त लोभ अनुपशान्त-लोभ है। पूर्वकृत लोभ-मोहनीयकर्म का जब उदय होता है।, वस्तु आदि पदार्थ को प्राप्त करने की इच्छा जाग्रत होती है, यह अनुपशान्त-लोभ है।
4चउविहे लोभे पण्णते, तं जहा -1. आभोगणिव्वत्तिते, 2. अणाभोगविव्वत्तिते,
3. उवसंते, 4. अणवसंते एवं –णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। - स्थानांगसूत्र 4/91 42 प्रज्ञापनासूत्र 43 आभोगो-ज्ञानं तेन निर्वर्तितो ....... | – स्थानांगवृत्ति, पत्र 182
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