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क्यों कहा जाता है ? यह सत्य है कि प्राणी - जीवन प्रवृत्ति और निवृत्ति - दोनों के आधार पर खड़ा हुआ है, फिर भी दार्शनिक दृष्टि से यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि आखिर इन दोनों संज्ञाओं में ओघ -संज्ञा को उपादेय और हेय क्यों माना गया है, जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया है कि ओघ -संज्ञा निवृत्तिपरक है और ओघ -संज्ञा प्रवृत्तिपरक है ।
जैनधर्म मूलतः निवृत्तिपरक धर्म है, क्योंकि वह श्रमण - परम्परा का अनुसरण करता है। श्रमण- परम्परा को आध्यात्मिक - विकास में सहायक तत्त्वों को उपादेय और बाधक तत्त्वों को हेय माना गया है। ओघ - संज्ञा सामान्य मुनि - आचार की बात करती है। अधिक व्यापक रूप से कहं तो यह सामान्य विवेकयुक्त मानवीय मूल्यों की बात करती है, जबकि लोकसंज्ञा सामान्य प्राणी - व्यवहार की बात करती है। जैन-धर्मदर्शन का कहना है कि मनुष्य और सामान्य प्राणियों में जो पाशविक प्रवृत्तियाँ है वे तो समान ही हैं, मनुष्य की विशेषता इन पाशविक - प्रवृत्तियों से ऊपर उठकर मानवीय मूल्यों के विकास में है । यही कारण है कि जैन-दर्शन में ओघ -संज्ञा को उपादेय और लोक-संज्ञा को हेय माना गया है । यह सत्य है कि मनुष्य और पशुजीवन में कुछ बातें समान हैं, लेकिन मनुष्य की विशेषता उन सामान्य वासनात्मक–तत्त्वों के आधार पर न होकर विवेक और धर्म को प्रधानता देते हुए पाशविक - जीवन में ऊपर उठने में ही है, अतः जैनधर्म-दर्शन की दृष्टि में लोक-संज्ञा हेय और ओघ -संज्ञा उपादेय है ।
ओघ -संज्ञा और लोक-संज्ञा में भेद
ओघ -संज्ञा और लोक-संज्ञा के भेद को स्पष्ट करते हुए भगवतीसूत्र के भाष्य' में आचार्य महाप्रज्ञजी ने स्पष्ट किया है कि ओघ -संज्ञा का अर्थ दर्शनोपयोग और लोक-संज्ञा का अर्थ ज्ञानोपयोग किया गया है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह विचारणीय है कि आचार्य महाप्रज्ञजी ने भी इसे विमर्शनीय माना है । सिद्धसेन गणी
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"भगवतीसूत्र (भगवई) भाग - 2, आचार्य महाप्रज्ञ, जैनविश्वभारती लाडनूं, श.7 / उ.8 / सू. 161 पृ. 382
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