________________
431
उत्पन्न होता है कि सुख कैसा हो ? क्षणिक या सदाकालीन, शाश्वत्, क्योंकि सुख की धारणा सभी प्राणियों में अलग-अलग होती है, कोई किसी वस्तु में सुख मानता है, तो किसी को अन्य वस्तु में सुख की अनुभूति होती है। प्रत्येक प्राणी की रूचि–प्रवृत्ति भिन्न-भिन्न है।
इस दृष्टि से, प्राणियों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथमभवाभिनन्दी और दूसरा –मोक्षाभिनन्दी। भवाभिनन्दी जीव भौतिक-सुखों की इच्छा करते हैं, उनकी प्राप्ति में ही सुख मानते हैं और उनका वियोग होते ही दुःखी हो जाते हैं। सभी अविकसित प्राणी इसी कोटि के हैं। किन्तु मानव जो विकसित प्राणी है, उनमें से अधिकांश भी इसी कोटि के हैं, वे भी भौतिक सुखों की और लालायित रहते हैं। अभिधानराजेन्द्रकोष 33 में सुख को आनन्दरूप तथा दुःख को असातावेदनीयकर्मरूप माना है। आनन्दस्वरूप भौतिक सुख अनेक प्रकार के हैं। उपाध्याय केवलमुनि ने तत्त्वार्थसूत्र के प्रारंभ में भौतिक सुखों को सुविधा की दृष्टि से नौ वर्गों में वर्गीकृत किया है - 1. ज्ञानानन्द - ज्ञान से अभिप्राय यहाँ भौतिक ज्ञान है। बहुत से वैज्ञानिक
नई-नई खोज/शोध करने में ही आनन्द मानते हैं। कुछ लोग शक्ति प्राप्त करके दूसरों का अहित करते हैं और आनन्द मानते हैं। कुछ लोग नित नए घातक शस्त्र, संहारक सामग्री के आविष्कार में ही जीवन लगा देते हैं। इसी प्रकार, बहुत से मानव बौद्धिक-शक्ति प्राप्त करके दूसरों को ठगते हैं, धोखा देते हैं, जासूसी करते हैं और इसी प्रकार वे अपने प्राप्त ज्ञान में आनन्द
मानते हैं। 2. प्रेमानंद – मानव चाहता है कि सभी उससे प्रेम करे। जब तक माता-पिता,
पति-पत्नी तथा समाज के अन्य व्यक्ति उससे प्रेम करते हैं, तब तक वह
33 सुखमानन्दरूपं दुःखमसातोदयरूपमिति ताभ्यां समान्वितो युकः । -अभिधानराजेन्द्रकोष भाग-7, पृ. 1019 34 तत्त्वार्थसूत्र (हिन्दी विवेचन सहित), उपाध्याय श्री केवलमुनि, पृ.1
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org