________________
434
दुःख का कारण -
दुःख का मूल कारण क्या है ? इसका उद्गम-स्थल कौनसा है ? इन प्रश्नों को ज्ञानियों ने अनेक प्रकार से वर्णित किया है। आचारांगसूत्र में सभी दुःखों का मूल स्रोत –"आरंभ हिंसाजन्य प्रवृत्ति है। प्रमादी व्यक्ति कषायों के वश होकर आरम्भ हिंसा करता है और परिणामस्वरूप अशुभ कर्मों का बंध करके नरक, तिर्यच आदि दुर्गतियों में नाना प्रकार के दुःखों को भोगता है तथा जन्म, जरा और मरण को प्राप्त करता रहता है।"37 सूत्रकृतांगसूत्र में दुःख का कारण संसार में किए दुष्कृत-पाप हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में दुःख के कारण अविद्या, मोह, कामना, आसक्ति एवं राग-द्वेष आदि हैं। आचार्य पूज्यपाद लिखते हैं -इस जड़ शरीर में आत्मबुद्धि का होना ही संसार के दुःखों का कारण है, इसलिए शरीर में आत्मत्व की मिथ्या कल्पना को छोड़कर बाह्यविषयों में इन्द्रियों को रोकता हुआ अन्तरंग में प्रवेश करे। 39 आचार्य गुणभद्र लिखते हैं -"सर्वप्रथम शरीर उत्पन्न होता है, इस शरीर से दुष्ट इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। वे अपने विषयों को चाहती हैं और वे विषय मान हानि, परिश्रम, भय, पाप एवं दुर्गति को देने वाले हैं। इस प्रकार से समस्त अनर्थों की परम्परा का मूल कारण शरीर ही है। आचार्य शुभचन्द्र लिखते हैं कि – “इस संसार से जो-जो भी दुःख जीवों को सहने पड़ते हैं, वे सब इस शरीर के ग्रहण के कारण ही सहने पड़ते हैं। इस शरीर से निवृत्त होने पर फिर कोई भी दुःख नहीं है। 41 बौद्धग्रंथ महासतिपट्ठान में तृष्णा को ही दुःख का कारण माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में
37 आरंभजं दुक्खमिणांति णच्चा, माई पमाई पुण– एइ गव्यं..... | आचारांगसूत्र प्रथमश्रुतस्कंध, 3/1/172 38 सूत्रकृतांगसूत्र - 5/1/315
मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्ततः। त्यक्त्वैनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्यापृतेन्द्रियः।। - समाधिशतक, श्लोक-15 आदौ तनोर्जननमत्र हतेन्द्रियाणि काड,क्षन्ति तानि विषयान्विषयाश्च मान हानिप्रयासभयपाप कुयोनिदाः स्युर्मूलं ततस्तनुरनर्थपरं पराणाम् ।। -आत्मानुशासन, श्लो.195 भवोद्भवानि दुःखानि यानि यानीह देहिभिः। सह्यन्ते तानि तान्युच्चैर्वपुरादाय केवलम् ।। - ज्ञानार्णव, अधिकार-7, दोहक 11 महासतिपट्ठान,
42
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org