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अध्याय-11 सुख-संज्ञा और दुःख-संज्ञा
संज्ञा के षोडषविध वर्गीकरण में सुख-संज्ञा और दुःख-संज्ञा का क्रम ग्यारहवां और बारहवाँ है। सातावेदनीय-कर्म के उदय से होने वाली सुखद अनुभूति सुखसंज्ञा है और असातावेदनीय-कर्म के उदय से होने वाली दुःखद अनुभूति दुःखसंज्ञा है।' आधुनिक मनोविज्ञान में यह भी बताया है कि सुख सदैव अनुकूल इसलिए होता है कि उसका जीवनी-शक्ति को बनाए रखने की दृष्टि से मूल्य है और दुःख प्रतिकूल होता है, क्योंकि वह जीवनी-शक्ति का हृास करता है। यही सुख-दुःख का नियम समस्त व्यवहार का चालक है। जैन-दार्शनिक भी प्राणीय–व्यवहार के चालक के रूप में इसी सुख-दुःख के नियम को स्वीकार करते हैं। अनुकूल के प्रति आकर्षण
और प्रतिकूल के प्रति विकर्षण -यह प्राणीय स्वभाव है। आचारांगसूत्र में कहा गया है -“सभी प्राणियों को सुख प्रिय है, अनुकूल है और दुःख अप्रिय है प्रतिकूल है।" प्राणी सुख प्राप्त करना चाहते हैं और दुःख से बचना चाहते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है –“संसार में जन्म का दुःख है जरा, रोग और मृत्यु का दुःख है, चारों ओर दुःख-ही-दुःख है। अतएव वहाँ प्राणी निरंतर दुःख ही पाते रहते हैं। प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है –“जो सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है, वह पराश्रित, बाधासहित, विच्छिन्न, बंध का कारण तथा विषम होने से वस्तुतः सुख नहीं, दुःख ही
'प्रवचन-सारोद्धार, द्वार 146, साध्वी हेमप्रभाश्री, पृ. 925 2 सव्वे पाणा पिआउया, सुहसाया दुक्खपडिकूला ।- आचारांगसूत्र – 1/2/3
जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य। अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतुणो।। - उत्तराध्ययनसूत्र 19/16 *सपरं वाधासहियं, विविच्छण्णं बंधकारणं विसमं। जं इन्दियंहि लद्धं, तं सोक्खं दुक्खमेव तहा।। - प्रवचनसार 1/16
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