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अनुपलब्धि को दुःख मानता है। वास्तव में सुख क्या है ? इस प्रश्न का सबसे संक्षिप्त और सरल उत्तर यही है कि वह सब सुख है, जिसमें मन की आकुलता, व्याकुलता, चाह-चिन्ता, आशा-अभिलाषा व अभाव मिटे तथा मन निर्मलता शान्ति, समभाव और आनन्द से भर जाए। सुख का उपाय है, -सद्भाव की जिन्दगी जीना, जो है, उसका आनंद लेना। जितना प्राप्त है, उतने में संतोष रखना ही सुख है। आचारांग में कहा है का अरई के आणंदे ?" अर्थात्, “ज्ञानी के लिए क्या दुःख, क्या सुख? कुछ भी नहीं, अर्थात् ज्ञानी उसे ही कहा गया है, जो संतोषी हो। जो संतोषी है, वही सुखी है।"
सुख का अभाव ही दुःख है। अन्तकरण या मन में उद्भूत होने वाले विभिन्न भावों में सुख और दुःख के भाव ही प्रमुख हैं। सुख अनुकूल-वेदनीय होता है अर्थात् इसकी अनुभूति अनुकूल प्रतीत होती है। दुःख प्रतिकूल-वेदनीय होता है, अर्थात् इसकी अनुभूति प्रतिकूल प्रतीत होती है। दूसरे शब्दों में सुख अच्छा लगता है और दुःख बुरा लगता है। वांछित या प्रिय के प्रति किसी रूप से सम्बद्धता का भाव सुखात्मक, सुखरूप या सुखद् होता है और अप्रिय के प्रति सम्बद्धता का भाव दुःखात्मक, दुःखरूप या दुःखद होता है। ____सामान्य अर्थ में सुख-दुःख सापेक्ष शब्द हैं, एक विकल्पात्मक-स्थिति है। दुःख के विपरीत जो है, उसकी अनुभूति सुख है, या सुख दुख का अभाव है। जैनदर्शन 'निर्वाण' में जिस अनन्त सौख्य की कल्पना करता है, वह निर्विकल्प सुख है।
सुख के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि जैन विचारकों की दृष्टि में 'सुख' शब्द का क्या अर्थ अभिप्रेत है। वस्तुतः जैनागमों की भाषा प्राकृत है। प्राकृत में 'सुह' शब्द के संस्कृत भाषा में 'सुख' और शुभ -ऐसे दो
18 का अरई के आणंदे ? - आचारांगसूत्र, 1-3-3 19 बृहत्कल्पभाष्य, 57/7
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