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रूप बनते हैं। जैनागमों में सुह शब्द विभिन्न स्थलों पर भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जैनाचार्यों ने 'सुख' दस प्रकार के कहे हैं -20
___ 1. आरोग्यसुख, 2. दीर्घायुष्यसुख, 3. सम्पत्तिसुख, 4. कामसुख, 5. भोगसुख, 6.सन्तोषसुख, 7.अस्तित्वसुख, 8.शुभभोगसुख, 9.निष्क्रमणसुख और 10.अनाबाधसुख ।
सम्पत्ति या अर्थ गार्हस्थिक-जीवन के लिए आवश्यक है और सांसारिक सुखों के लिए कारणभूत होने से उसे 'सुख' कहा गया है।"
दुःख के भेदों को बताते हुए आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं –'आगंतुक मानसिकं सहजं सारीरियं चत्तारि दुक्खाई। अर्थात् दुःख चार प्रकार का होता है - आगन्तुक, मानसिक, स्वाभाविक तथा शारीरिक। अचानक बिजली आदि गिरने से अथवा अचानक कोई दुर्घटना आदि से जो दुःख प्राप्त होता है, उसे 'आगन्तुक दुःख' कहते हैं। प्रिय जनों के दुर्व्यवहार आदि से तथा इष्ट वस्तु की प्राप्ति न होने के कारण जो दुःख प्राप्त होता है, उसे 'मानसिक दुःख' कहते हैं। जीव के निज स्वभाव से उत्पन्न होने वाले दुःख को ‘स्वाभाविक दुःख' कहते हैं। जैसे किसी का स्वभाव क्रोधी, चिड़चिड़ा या लड़ाकू हो, आदि इससे भी व्यक्ति दुःखी होता है। जिसका शरीर मोटा हो, छोटा हो, नाटा हो, पतला हो, काला हो, अधिक लम्बा हो या शारीरिक बीमारियों से ग्रस्त हो- ये सब दुःख शारीरिक-दुःख हैं।
स्वामी कार्तिकेय दुःख के पाँच भेद बताते हुए लिखते हैं -
असुरोदरीयि दुःखं सारीरं माणसं तहा विविहं खित्तुब्भवं च तित्वं अण्णोण्णकयं च पंचविहं।।23
20 सूत्रकृतांग, 737 21 अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड-7, पृ. 1018 22 भावपाहुड, गाथा-11
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा -35
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