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लोकसंज्ञोझिवः साधुः, परब्रह्मसमाधिमान् । सुखमास्ते गतद्रोहममतामत्सरज्वरः ।।8।।
लोकसंज्ञा से रहित, शुद्धात्म-स्वरूप में लीन तथा जिसका द्रोह, ममता और गुणदोषरूपी ज्वर उतर गया है, नष्ट हो गया है – ऐसा साधु सुख में (आनन्द में) रहता है।
उपर्युक्त अष्टक की विवेचना का उद्देश्य लोकसंज्ञा पर साधक विजय किस प्रकार से करे। वस्तुतः, लोकरंजनार्थ लोक-प्रशंसा प्राप्त करने हेतु लोकरुचि का अनुसरण किया जाता है, जिसे लोकसंज्ञा कहते हैं, जो मुनि और साधक-जन के लिए निषिद्ध है। साधक को सदा स्मरण रखना चाहिए कि द्रोह, ममता और मत्सर - ये पतन में गिराने वाली गहरी खाईयां है, लोग भले ही उनमें मस्त बनें पर तुम्हें उनका शिकार नहीं बनना है। कीचड़ में, गंदे पानी के प्रवाह में सूअर लोटता है, हंस नहीं। मुनि राजहंस के समान है, अतः मुनि को लोक-संज्ञा का परित्याग श्रेयस्कर बताया है।
ओघ-संज्ञा पर विजय -
ओघ-संज्ञा वस्तुतः आचार और व्यवहार के सामान्य निर्देश से संबंधित है। उन निर्देशों का पालन करना ही ओघ-संज्ञा. पर विजय प्राप्त करना है। ओघ-संज्ञा पर विजय प्राप्त करने के उपायों की चर्चा करते हुए श्वेतांबर-परम्परा में ओघनियुक्ति नामक ग्रंथ लिखा गया है। इसमें मुख्य रूप से साधु-जीवन के आचारों का प्रतिपादन है।
इसमें वर्णित विषय इस प्रकार हैं -1. प्रतिलेखन, 2. पिंडग्रहण, 3. उपधिपरिमाण, 4. अनायतन-वर्जन, 5. प्रतिसेवन, 6. आलोचन, 7. विशुद्धि । ओघनियुक्ति इन सात विषयों का विस्तृत विवेचन है।" इससे यह स्पष्ट है कि मुनि-जीवन के
27 1.पडिलेहणं, 2. च पिंड, 3. उवहिपमाणं, 4. अणाययणवज्जं,
5 पडिसेवण, 6. मालोअण, 7. जह य विसोही सुविहआणं ।। - ओघनियुक्ति-2, गाथा-2
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