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लोक-संज्ञा रूपी नदी के प्रवाह में बहना, प्रवास करना कोई बड़ी बात नहीं है। खाना, पीना, ओढ़ना, पहनना, विकथाएं करना, परिग्रह इकट्ठा करना, भोगोपभोग का आनन्द लूटना, गगनचुम्बी भवन निर्माण करना, तन को साफ-सुथरा रखना, सजाना-संवारना, वस्त्राभूषण धारण करना आदि समस्त क्रियाएं सहज स्वाभाविक है। इनमें कोई विशेषता नहीं और न ही आश्चर्य करने जैसी बात है। मुनि को चाहिए कि वह इन आदर्श-पद्धति, परम्परा और लोकसंज्ञा के रीति-रिवाज से दूर रहे।
लोकमालम्ब्य कर्त्तव्यं, कृतं बहुभिरेव चेत्।
तथा मिथ्यादशां धर्मो, न त्याज्यः स्यात् कदाचन ।।4 || यदि लोकावलम्बन के आधार से बहुसंख्य मनुष्यों द्वारा की जाने वाली क्रिया करने योग्य हो, तो फिर मिथ्यादृष्टियों का धर्म कदापि त्याग करने योग्य नहीं होगा। (क्योंकि संसार में मिथ्यादृष्टि ही अधिक हैं, सम्यक्दृष्टि अत्यल्प हैं।)
वस्तुतः, जो दुर्गति में जाते जीवों का बचा न सके, वह धर्म कैसा ? आत्मा पर रहे कर्मों के बंधनों को छिन्न-भिन्न न कर सके, उसे धर्म कैसे कहा जाए ? भगवान् महावीर के समय भी गोशालक का अपना अनुयायी-वर्ग बहुत बड़ा था। उससे क्या गोशालक का मत स्वीकार्य हो सकता है ? वास्तव में, 'बहुमत से जो आचरण किया जाए, उसका ही आचरण करना चाहिए', -यह मान्यता अज्ञानमूलक है। इसलिए लोकसंज्ञा के अनुसरण का भगवान् ने निषेध किया है। सिर्फ उसी बात का अनुसरण करना श्रेयस्कर है, जिससे आत्महित और लोकहित -दोनों संभव हो।
श्रेयोऽर्थिनो हि भूयांसो लोके लोकोत्तरे न च।
स्तोका हि रत्नवणिजः स्तोकाश्च स्वात्मसाधका ।।5।। वास्तव में देखा जाए तो लोकमार्ग और लोकोत्तरमार्ग में मोक्षार्थियों की संख्या नगण्य ही है, क्योंकि जैसे रत्न की परख करने वाले जौहरी बहुत कम होते हैं, वैसे ही, आत्मोन्नति हेतु प्रयत्न करने वालों की संख्या भी न्यून ही होती है।
मोक्ष के अर्थी, अर्थात् सर्व कर्मक्षय के इच्छुक । आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था की प्राप्ति के अभिलाषी इस संसार में न्यून ही होते हैं, -नहींवत्। जिनकी गणना
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