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ने 'ओघ-संज्ञा का अर्थ अनिन्द्रिय-ज्ञान किया है। उनके अनुसार जो ज्ञान इन्द्रिय और मन के बिना सामान्य चेतना से होता है, वह ओघ-संज्ञा है।ऐसा ज्ञान पेड़-पौधों और छोटे जीव-जन्तुओं में भी होता है। वे प्रकम्पनों और संवेदनों के आधार पर भावी घटनाओं को भी जान लेते हैं, जबकि लोक-संज्ञा वंश-परम्परा से होनेवाला ज्ञान है। वृत्तिकार ने लिखा है कि ये संज्ञाएं स्पष्ट रूप में पंचेन्द्रिय जीवों में होती हैं, एकेन्द्रिय आदि जीवों में केवल कर्मोदयरूप होती है। वर्तमान वैज्ञानिकों ने यन्त्रों के माध्यम से पेड़-पौधों में इन संज्ञाओं का अध्ययन किया है, इसलिए एकेन्द्रिय आदि जीवों में यह स्पष्ट विज्ञात होती है। वस्तुतः स्थानांग-टीका' में ओघसंज्ञा दर्शनोपयोगरूप है तथा लोकसंज्ञा ज्ञानोपयोगरूप है। आचारांग की टीका, प्रवचनसारोद्धार, प्रशमरति”, प्रज्ञापनासूत्र में भी मतिज्ञानावरण-कर्म के क्षयोपशम से शब्दार्थविषयक सामान्य बोध होता है, उसका नाम है – ओघसंज्ञा और विशेष बोध प्राप्ति को लोक-संज्ञा कहते हैं। आचारांगसूत्र टीका में कहा गया है - पेड़ पर लता का चढ़ना, पेड से लिपटना ओघ-संज्ञा का सूचक है। इसे अव्यक्त संज्ञा भी कहते हैं। रात पड़ने पर कमल पुष्प का संकुचित होना, निःसंतान की गति नहीं होती, मयूरपंख की हवा से गर्भधारण होता है, कुत्ते यक्षरूप हैं, कौए पितामह हैं, ब्राह्मण देव हैं, इत्यादि सब लोक-संज्ञा कही जाती है।
जैन परम्परा में ओघ-संज्ञा और लोक-संज्ञा को जिस प्रकार से भिन्न रूप में देखा गया है, उस प्रकार से हम यह मान सकते हैं कि ओघ-संज्ञा ज्ञानरूप है और लोक-संज्ञा वासना रूप है। दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग ओघ-संज्ञा का परिणाम है,
17 ओघ :- सामान्य अप्रविभक्तरूपं यत्र न स्पर्शनादीनीन्द्रियाणि तानि मनोनिमित्तिमाश्रीयन्ते, केवलं मत्यावरणीयक्षयोपशम एव तस्य
ज्ञानास्योत्पत्तौ निमित्तम, यथा वल्लयादीनां नीबाघभिसर्पणज्ञानं न स्पर्शन निमित्तं न मनोनिमित्तमिति, तस्मात् तत्र
मत्यज्ञानावरण-क्षयोपशम एव केवलो निमित्तीक्रियते ओघज्ञानस्य। - तत्त्वार्थसूत्राधिगम भाष्यवृत्ति 1/14, पृ. 78 18 भगवतीवृत्ति – 7/161 19 स्थानांग टीका 20 आचारांग की टीका 21 प्रवचनसारोद्धार, 146 द्वार, साध्वी हेमप्रभाश्री, पृ. 80-81 22 प्रशमरति, भाग-2, भद्रगुप्तविजयजी, पृ. 285 " प्रज्ञापनासूत्र, संज्ञापद, 8/625
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