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लोभ के दुष्परिणाम निम्नलिखित हैं - 1. संग्रहवृत्ति -
लोभ संग्रहवृत्ति का प्रथम सोपानं है। लोभ के कारण ही व्यक्ति में लालसा उत्पन्न होती है। आवश्यकता न होने पर भी लोभ-प्रवृत्ति के कारण वह धन का संचय करता है। धनसंचय देश, समाज और व्यक्तियों में वर्गभेद, संघर्ष, हिंसा, तनाव आदि सामाजिक-विषमताओं का कारण बनता है। चेतना का जब भौतिक-जगत से संबंध होता है, तो उसे अनेक वस्तुएँ अपने प्राणमय जीवन के लिए आवश्यक प्रतीत होती हैं। यही आवश्यकता जब आसक्ति में बदल जाती हैं, तो एक ओर संग्रह बढ़ता है, तो दूसरी और संग्रह की लालसा बढ़ती जाती है। परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन में आर्थिक-विषमता बढ़ती जाती है। ऋग्वेद में कहा है – “जिसके पास संपत्ति का एक भाग है, वह दो भाग वाले पथ पर चलता है, दो भाग वाला तीन भाग वाले का अनुकरण करता है, अतः कामनाओं का दण्ड निरन्तर बढ़ता रहता है और ये कामनाएं संग्रहवृत्ति को प्रेरित करती हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में प्रभु महावीर ने यही कहा है -“जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लाहो पवड़ढइ'48 अर्थात् लाभ के साथ-साथ लोभ बढ़ता रहता है। शब्द बदलकर यही बात संत तुलसीदास ने यो कहीं है -
"जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई। पाश्चात्य-विचारक ने भी इन्हीं शब्दों को इस प्रकार कहा है -
'The more they get, the more they want' वे जितना अधिक प्राप्त करते हैं, उतना ही अधिक चाहते हैं। वस्तुओं के संग्रह की इच्छा ही लोभ है, जो सुख की नाशक है। दशवैकालिकसूत्र में बताया है
47 ऋग्वेद - 10/117/8 481) उत्तराध्ययनसूत्र - 9/17
2) जे सया सन्मिही कामे, गिही पव्वइए ण से - दशवैकालिक सूत्र-6/19
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