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वस्तुतः, ओघ-संज्ञा इन्द्रिय और मन से पृथक्, चेतना की एक स्वतंत्र क्रिया है। पेड़ पर लताओं का चढ़ना, बैठे-बैठे पैर हिलाना, तिनके तोड़ना, बिना सोचे-विचारे किसी कार्य को करने की धुन या सनक को ओघ-संज्ञा कहते हैं। स्पर्श-रसादि के विभाग के बिना जो साधारण ज्ञान होता है, वह ओघ-संज्ञा है। भूकंप या तूफान आने से पहले पशु-पक्षी उसका आभास पाकर अपने बिलों, घोंसलों या अन्य सुरक्षित स्थानों में पहुंच जाते हैं। कई मछलियाँ देख नहीं सकती, परन्तु सूक्ष्म विद्युत धाराओं के जरिए पानी में उपस्थित रुकावटों का ज्ञान कर संचार करती हैं। यह सब ओघ-संज्ञा ही है। वर्तमान के वैज्ञानिक आजकल छठवीं इन्द्री की कल्पना कर रहे हैं, उसकी तुलना ओघसंज्ञा से की जा सकती है।'
जैन-परम्परा में जो नियुक्तियां उपलब्ध हैं, उनमें दशवैकालिकसूत्र १० पर ओघ-नियुक्ति का उल्लेख मिलता है, ऐसा माना जाता है कि दशवैकालिकसूत्र पर जो नियुक्ति लिखी गई है, उसमें पिंडनियुक्ति और ओघनियुक्ति प्रमुख हैं। उनमें पिंड-नियुक्ति का संबंध साधु की भिक्षाचर्या से है और ओघनियुक्ति का संबंध साधु के अन्य आचार-नियमों से है। यद्यपि नियुक्ति का कर्ता भद्रबाहुस्वामी को माना जाता है, किन्तु ऐसा लगता है कि ओघनियुक्ति परवर्तीकालीन जैन-आचार्यों ने लिखी है, क्योंकि आचार्य भद्रबाहुकृत जिन नियुक्तियों का उल्लेख मिलता है, उनमें ओघनियुक्ति और पिंडनियुक्ति का कहीं नाम-उल्लेख नहीं है। सामान्यतः ओघनियुक्ति में साधु के सामान्याचार का ही वर्णन है। इस सामान्य विवेचन में पिंडनियुक्ति के अनेक विषयों को भी सम्मिलित किया गया है।
ओघनियुक्ति को आवश्यकनियुक्ति का ही पूरक ग्रंथ माना जाता है। पूर्णविजयजी के संग्रह में ओघनियुक्ति के वृहद्भाष्य की एक हस्तलिखित प्रति का भी उल्लेख मिलता है, इसमें साधु के सामान्य आचार के संदर्भ में षडावश्यक, दशविधसामाचारी आदि का भी उल्लेख हुआ है। सामान्यतः, यह नियुक्ति
' नवभारत टाइम्स (मुम्बई) 24 मई 1970, उद्धत् -ठाणंसूत्र, मुनिनथमल, जैनविश्वभारती, लाडनूं, पृ.999 10 ओघनियुक्ति - 2
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