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धन के लोभ में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव भी अपने गाड़े हुए निधान पर मूर्छापूर्वक जगह बनाकर रहते हैं। सर्प, गोह, नेवले, चूहे आदि पंचेन्द्रिय जीव धन के लोभ से निधान वाली जगह पर आसक्तिवश बैठे रहते हैं। पिशाच, मुद्गल, भूत, प्रेत, यक्ष आदि अपने या दूसरे के धन पर लोभ व मूर्छावश निवास करते हैं। आभूषण, उद्यान, बावड़ी आदि पर मूर्छाग्रस्त होकर देवता भी च्यव कर पृथ्वीकायादि योनि में उत्पन्न होते हैं। साधु भी उपशान्तमोह-गुणस्थान तक पहुंचकर क्रोधादि पर विजय प्राप्त कर लेने पर भी एकमात्र अल्पलोभ के दोष के कारण नीचे के गुणस्थानों में आ गिरते हैं। माँस के टुकड़े के लिए जैसे कुत्ते आपस में लड़ते हैं, वैसे ही एक माता के उदर में जन्मे हुए सगे भाई भी थोड़े-से धन के लिए परस्पर लड़ते हैं। लोभाविष्ट मनुष्य राज्य, गाँव, पर्वत एवं वन की सीमा पर अधिकार जमाने के लिए सहृदयता को तिलांजलि देकर ग्रामवासी, राज्याधिकारी, देशवासी और शासकों में परस्पर फूट डालकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। लोभ के कारण मनुष्य मालिक के आगे नट की तरह नाचता है, उसका प्रेमभाजन बनने का नाटक करता है और स्वार्थ सिद्ध होने पर उस ओर देखना भी पसंद नहीं करता। स्थानांगसूत्र में चार स्थान ऐसे हैं, जो कभी नहीं भरते, अर्थात् पूर्ण नहीं होते, हमेशा अपूर्ण ही रहते हैं, जैसे - समुद्र, श्मशान, पेट और तृष्णा। 1. समुद्र - समुद्र में अनेक नदियाँ आकर मिलती हैं, फिर भी समुद्र कभी पूरा नहीं भरता, उसमें फिर भी नदियों का जल समा लेने की क्षमता बनी रहती है।
2. श्मशान – श्मशान में करोड़ों बाल, युवा, वृद्ध, स्त्री-पुरुष के शव जलाए जाते हैं, किन्तु फिर भी वह खाली ही रहता है।
3. पेट – पेट में सुबह, दोपहर और शाम कुछ न कुछ डालते रहते हैं, फिर भी वह खाली-का-खाली ही रहता है। .
4. तृष्णा - तृष्णा एक विराट गड्ढा है, उसे सुमेरु पर्वत से भी नहीं भरा जा सकता। वह हमेशा खाली ही रहता है।
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