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प्रवृत्ति ज्यों की त्यों रहे, तो मन सदा बैचेन बना रहता है। जिसके जीवन में पुण्य अधिक एवं लोभ कम होता है, वह व्यक्ति सुखी होता है और जिसके जीवन में लोभ अधिक एवं पुण्य कम होता है, वह अत्यन्त दुःखी होता है। कदम-कदम पर उसके सामने दुःख के कांटे ही बिछे रहते हैं। दुःख का कारण लोभ है। जिसमें लोभ नहीं होता, उसका दुःख नष्ट हो जाता है। दुनिया में जितने भी बंधन हैं, उसमें जकड़ने वाला लोभ ही है। बंधन कोई नही चाहता, क्योंकि बंधन परतन्त्रता है, सुख स्वतंत्रता
लक्षण -
लोभ के लक्षण के संदर्भ में चर्चा करें, तो वस्तुतः लोभ एक आन्तरिक-मनोभाव है। बाह्य स्वरूप से हम नहीं दर्शा सकते कि यह व्यक्ति लोभी है, परन्तु उसके क्रियाकलापों के माध्यम से उसके लोभी होने का पता चलता है। असंतोषवृत्ति, इच्छा, आकांक्षा, तृष्णा, धन के प्रति अत्यधिक आसक्ति, कंजूस प्रवृत्ति और थोड़े से लाभ के लिए असत्यभाषण का प्रयोग करना लोभी व्यक्ति के प्रमुख लक्षण हैं। चिन्तामणि में 'लोभ' से संबंधित विचारात्मक निबन्ध में उद्धृत लोभ के दो उग्र लक्षण बताए हैं - 1. असंतोष और 2. अन्य वृत्तियों का दास।
जब लोभ बहुत बढ़ जाता है, तब प्राप्त में सन्तोष नहीं होता और अधिक पाने की चाह बनी रहती है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति मान-अपमान, करुणा-दया, न्याय-अन्याय तो भूल ही जाता है; किन्तु कई बार क्षुधा-तृषा, निद्रा-विश्राम, सुख-भोग की इच्छा भी दबा लेता है। लोभ की प्रवृत्ति एकेन्द्रिय जीव से लेकर पंचेन्द्रिय जीव तक सभी जीवों में सुषुप्त और जाग्रत अवस्था में पाई जाती है।
इस भूमण्डल पर लोभ का एकछत्र साम्राज्य है। लोभ के कारण ही एकेन्द्रिय पेड़-पौधे भी धन मिलने पर उसे अपनी जड़ में दबाकर, पकड़कर ढके रखते हैं।
28 दुक्खं हयं जस्स न होइ लोहो। - उत्तराध्ययन 32/8 29 चिन्तामणि, भाग-2, पृ. 83
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