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सम्पत्ति भी क्यों न मिल जाए, फिर भी उसकी तृप्ति नहीं होती । वह सदैव अतृप्त ही बना रहता है ।
निर्धन मनुष्य सौ रुपए की अभिलाषा करता है, सौ पाने वाला हजार की इच्छा करता है और हजार रुपयों का स्वामी लाख रुपए पाना चाहता है । लक्षाधिपति करोड़ की लालसा करता है, और कोटिपति राजा बनने का स्वप्न देखता है, राजा को चक्रवर्ती बनने की धुन सवार होती है, और चक्रवर्ती को देव बनने की लालसा जागती है। देव भी इन्द्रपद प्राप्त करना चाहता है, मगर इन्द्रपद प्राप्त होने पर भी तो इच्छा का अन्त नहीं होता है, अतः प्रारम्भ में थोड़ा-सा लोभ होता है, वही बाद में शैतान की तरह बढ़ता जाता है। 27 वर्त्तमान में आदमी कितने वर्ष तक जीवित रह सकता है ? अधिक-से-अधिक सौ वर्ष तक जीवन रह सकता है, परन्तु वह तैयारी करता है, हजारों वर्षों की। सौ वर्ष तक जीवित रहने वाला व्यक्ति हजार वर्ष की सामग्री संचय करने के लिए आकाश-पाताल एक करके, दुःखमूलक प्रवृत्तियों का सहाराले, पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म का सहारा लेकर और लोभ के वशीभूत होकर संचय करता है । जिस प्रकार बिल्ली चूहा मारने में नेवला सर्प मारने में और सिंह हिरण को मारने में पाप नहीं मानता, उसी प्रकार असंतोषी लोभी जीव संग्रह में भी पाप नहीं मानता। आध्यात्मयोगी श्री आनन्दघनजी ने लोभ (तृष्णा) का स्वरूप बताते हुए कहा है - " अढ़ाई द्वीप को चारपाई बना दिया जाय, आकाश को तकिया व धरती को ओढ़ने की चादर बना दी जाए, तब भी असन्तोषी मनुष्य यही कहेगा कि मेरे पैर तो बाहर ही रहते हैं ।"
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पूंजी लाख रुपए की होने पर भी यदि रत्ती भर भी सुख न मिले, तो इसका कारण तृष्णा और असन्तोष ही है । चक्रवर्त्ती जैसी ऋद्धि-सिद्धि मिलने पर भी लोभ
धनहीनः शतमेकं सहस्त्रं शतवानपि । सहस्त्राधिपतिर्लक्षं, कोटिं लक्षेश्वरोऽपि च ।।
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2) कोटीश्वरो नरेन्द्रत्वं नरेन्द्रश्चक्रवर्त्तिताम् । चक्रवर्ती च देवत्वं, देवोऽपीन्द्रत्वमिच्छति ।। 3) इन्द्रत्वेऽपि हि सम्प्राप्ते, यदीच्छा न निवर्तते । मूल लघीयांस्तल्लोभः, सराव इव वर्धते ।।
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योगशास्त्र 4 / 19-21 तक
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